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________________ कर्तव्यनिष्ठा, श्रम-निष्ठा, परस्पर सहयोग, प्राणी मात्र के प्रति दया एवं करुणा आदि ऐसे सहज मानवीय गुण हैं, जो मनुष्य को अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठता प्रदान करते हैं और जिसके संतुलन से प्रकृति-व्यवस्था संतुलित एवं मर्यादित चलती रहती है। किंतु जब इन मानवीय गुणों का ह्रास होता है या इन गुणों के प्रतिपक्षी मनोभाव मानव जीवन पर आक्रमण करते हैं, तब उनसे न केवल व्यक्ति, प्रत्युत समाज भी दुःखी होता है। इससे प्राकृतिक संतुलन भी अस्त-व्यस्त हो जाता है जैसा कि वर्तमान में मनोविकृत सामाजिक अव्यवस्था एवं प्राकृतिक असंतुलन के दुष्परिणामों को हम अनुभूत कर रहे हैं। वस्तुतः इन सब विकृतियों के साथ-साथ खान-पान की विकृति, रहन-सहन की अमीरी और चरित्र की गरीबी के लिए मानव-जगत् का मानसिक प्रदूषण ही उत्तरदायी है। प्रदूषण का जहरीला विष जीवित व्यक्ति को मृत्यु का अनुभव करा देता है। हमारे मन में प्रियता-अप्रियता, राग-द्वेष, स्नेह-घृणा, निहंकार-अहंकार, समत्व-ममत्व, करुणा-क्रूरता, शांति-क्रोध, सरलता-मायाचार, साहेष्णुता-ईर्ष्या, कर्तव्यपरायणता-विमुखता, अनाग्रह-दुराग्रह सरलता-कृत्रिमता, शुचिता-लोभ आदि के प्रतिपक्षी मनोभाव जन्म से ही विद्यमान रहते हैं। हमें जब जैसा संयोग प्राप्त होता है, कोई न कोई मनोभाव हम पर हावी हो जाता है और हम बिना विचार किए उसके दास बनकर व्यवहार करने लगते हैं। जब हमारे मन से दूसरों के प्रति सहयोग, परोपकार, करुणा, सहिष्णुता, संतोष आदि का शुभ भाव आता है, तो उससे समस्त जड़-चेतन जगत् में प्रसन्नता एवं सहजता व्याप्त हो जाती है, किंतु जैसे ही हमारे मन में परपीड़ा, क्रोध, लोभ, अहंकार-ममकार, शोषण, पर-अधिकार - हनन, हिंसा आदि अशुभ मनोभाव जागृत होते हैं वैसे ही व्यक्ति एवं समाज की शांति - संतुलन भंग हो जाता है और उससे प्रकृति भी विपरीत रूप से निश्चित ही प्रभावित होती है। वह नीरस हो जाती है। जिसका प्रमाण हमारे समक्ष प्रस्तुत है। एक दिन एक सम्राट शिकार के उद्देश्य से प्रत्यष बेला में अपने प्रिय अश्व पर आरुढ हो वन की ओर गया। घोड़े की टाप टप-टप आवाज से गगन को गुंजाती आगे बढ़ रही थी। सम्राट् बहुत खुश था और सोचता जा रहा था कि आज बहुत बढ़िया शिकार करूंगा, लेकिन वन्य पशुओं का सौभाग्य देखिए दूर-दराज तक उसे कहीं शिकार नजर नहीं आया। राजा अनवरत आगे बढ़ता गया। तपती, चिलचिलाती, धूप भरी दोपहर सिर से निकल गई। शरीर शिथिल हो गया, मन क्लान्ति का अनुभव करने लगा। कण्ठ उष्णता के कारण तालू से चिपक गया और क्षुधा बढ़ने लगी परन्तु कहीं भी क्षुधा-तुषा शान्ति के आसार नजर नहीं आ रहे थे। दैवात् कुछ दूरी पर एक झोंपड़ी राजा को दिखलाई दी; उसकी आशा की डोर वहां जाकर बँध गई। सांध्य बेला में राजा ने द्वार पर दस्तक दी। एक बुढ़िया ने द्वार खोला और प्रणाम मुद्रा में अतिथि की ओर देखा। “माँ! मुझे जोरों से प्यास लगी है, सुबह से निकला हूँ, क्या मुझे थोड़ा-सा जल पिलाओगी"-लगभग गिड़गिड़ाता-सा सम्राट बोला। हाँ ! हाँ क्यों नहीं ? बेटे अंदर आइए, यह तो मेरा परम सौभाग्य है जो कि अतिथि के आतिथ्य का अवसर मुझे मिला। यही तो भारतीय संस्कृति है। अतिथि का सत्कार। आइए बेटा ! अन्दर आइए, बुढ़िया मां ने विनय भरे स्वर में कहा। बुढ़िया मां और सम्राट एक पल में झोंपड़ी के अंदर थे। बुढ़िया ने तख्त की ओर संकेत कर आगन्तुक को बैठाया और स्वयं पश्चिम भाग की ओर चली गई। सोचती रही केवल कोरे जल से अतिथि का क्या स्वागत करूँ और यह तो दिन भर का भूखा है। बगीचे से कुछ फल तोड़ रस निकालकर इसे पिलाती हूँ। बुढ़िया ने झटपट दो अनार के फल तोड़े और रस से भरा एक लोटा पांच मिनट में अतिथि के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया। राजा प्यासा तो था ही तिस पर इतना शीतल और सुमधुर रस, वह भी प्यार के रस से भरा हुआ। एक ही श्वास में लोटा खाली कर दिया। सम्राट् बोला माँ क्या थोड़ा-सा रस और पिलाओगी। मां बोली क्यों नहीं और दौड़कर पुनः रस भरा लोटा लेकर लौट आई। रसपान कर सम्राट ने महान तृप्ति का अनुभव किया। जाते-जाते बोला माँ ! मैं किन शब्दों में आपको धन्यवाद हूँ। मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। तुम कभी भी मेरे राज-भवन में पधारो, मैं तुम्हारा स्वागत करूंगा। हां माँ ! एक बात का वचन दो पुनः कभी दोबारा भूला हुआ तुम्हारा बेटा इधर पधारे तो उसे ऐसा ही रस पिलाना। बुढ़िया ने अतिथि को अवश्य पिलाऊँगी। बेटा ! पुनः पधारना इत्यादि शब्दों द्वारा विदा दी। सम्राट अर्धनिशा में अपने अन्तःपुर पहंचा। शय्या पर लेटा. लेकिन आज वह हुंचा। शय्या पर लेटा, लेकिन आज वह सो न सका। वह बार-बार सोच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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