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मनुष्य जैसा चिंतना करता है, वैसा ही वह कार्य करता है। एक ही प्रकार के कार्य को भिन्न-भिन्न वृत्ति वाले लोग अलग-अलग ढंग से संपन्न करना चाहते हैं। दृष्टान्त दिया गया है कि छः लकड़हारे जंगल में लकड़ी, काटने गये। दोपहर में जब उन्हें भूख लगी, तो वे किसी फल के पेड़ को खोजने लगे। उन्हें एक जामुन का पेड़ दिखा, जो पके फलों से लदा हुआ था । प्रथम लकड़हारे ने अपनी कुल्हाड़ी से पूरे पेड़ को काटना चाहा, ताकि बाद में आराम से बैठकर फल खाये जा सकें। दूसरे ने एक मोटी, शाखा को काटना ही पर्याप्त समझा। तीसरे लकड़हारे ने सोचा--" शाखा काटने से क्या फायदा ? छोटी-छोटी टहनियां काट लेना ही पर्याप्त है ।" चौथे ने टहनियों को नुकसान पहुँचाना ठीक नहीं समझा। उसने केवल जामुन के गुच्छों को काटना ही उचित माना । तब पाँचवे ने कहा—क जामुन का हम क्या करेंगे ? केवल पके जामुनों को ही पेड़ से तोड़ लेते हैं। छठे लकड़हारे ने सुझाव दिया कि तुम सब पेड़ के ऊपर ही क्यों देख रहे हो । जमीन पर इस पेड़ के पके हुए इतने जामुन पड़े हैं, कि हम सभी की भूख मिट जाएगी। हम इन्हीं को बीन लेते हैं । सौभाग्य से उसकी बात मान ली गई।
इन छः व्यक्तियों के विचारों को छः रंग दिये गये हैं । प्रथम लकड़हारे के विचार सर्वनाश के द्योतक हैं। अतः वह 'कृष्णलेश्या' वाला है। दूसरे से छठे तक के विचारों में क्रमशः सुधार हुआ है । सर्वकल्याण की भावना विकसित हुई है। अतः दूसरे को नीललेश्या, तीसरे को कपोतलेश्या, चौथे को पीतलेश्या, पाँचवे को पद्मलेश्या एवं छठे लकड़हारे को शुक्ललेश्या वाला व्यक्ति माना गया है। काला, नीला, मटमैला, पीला, लाल और सफेद रंग क्रमशः विचारों की पवित्रता के द्योतक हैं। यदि आज का मानव जीवन-मूल्यों के माध्यम से पद्मलेश्या तक भी पहुंच जाय तो भी विश्व की प्राकृतिक संपदा सुरक्षित हो जाएगी। लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हो जाएँगी। इससे विपरीत मानव का असंयम प्रदूषण की समस्या ही पैदा करता रहेगा ।
आत्मतुलवाद और पर्यावरण
पर्यावरण संरक्षण में अहिंसा और जीवदया भी सन्निहित हैं । भगवान् महावीर आत्मतुलवाद के प्ररुपक थे। उन्होंने संयम, आचरण, करुणा, जीवदया पर विशेष बल दिया। सृष्टि के अस्तित्व को हम इस तुला से तोलें तो न केवल अहिंसा का सिद्धांत फलित होता है, अपितु पर्यावरण विज्ञान की समस्या को भी महत्वपूर्ण समाधान प्राप्त होता है । यह आवश्यक है कि हम अहिंसा को केवल धार्मिक रूप में प्रस्तुत न करें। यदि उसे वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए तो मानव जाति को एक नया आलोक उपलब्ध हो सकता है ।
'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'
जैन धर्म का एक विशिष्ट सूत्र है- "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" अर्थात् सभी जीव परस्परावलंबित हैं। छोटे या बड़े सभी जीवनों के अवलंबन को 'परस्परावलंबन सिद्धांत' कहा गया है। यह एक ऐसा अटूट बंधन है जो सर्व जीवों की हार्दिक मैत्री के विकास को जन्म देता है। इसलिए कहा जाता है कि पर्यावरण का थोड़ा-सा भी गैर उपयोग या उस पर की गई हिंसा मनुष्य के लिए आज नहीं तो कल भयप्रद हो सकती है। इस दृष्टि से देखा जाये तो परस्परावलंबन का सिद्धांत केवल आदेश ही नहीं है, बल्कि मनुष्य जाति के लिये एक चेतावनी है, एक संदेश है। यह सिद्धांत 'जीओ और जीने दो' उतना ही नहीं सिखाता वरन् " जीने दो जिससे कि हम भी जी सकें" ऐसा बोध भी कराता है।
सृष्टि की समूची व्यवस्था में ऐक्य एवं संवादिता है । परस्पर का अविभिन्न संबंध तथा एकसूत्रता है / स्वयंपूर्णता है । चैतन्य की उत्क्रांति और मानव समाज का सांस्कृतिक विकास विश्व की संवादिता तथा साम्य भाव के साथ सुसंकलित है। सभी जीवों के परस्परावलंबन के अद्वितीय सिद्धांत की स्वीकृति के लिये हमें सह-अस्तित्व की भावना को अवश्य सफल बनाना होगा।
मानसिक प्रदूषण का प्रभाव
इस प्रकार समग्र रूप से मनोभाव एवं मानसिक प्रदूषण से वर्तमान मानव सभ्यता एवं प्रकृति व्यापक एवं गहन रूप से प्रभावित हुई है। मानव जीवन की सरलता, सज्जनता, निष्कपटता, निश्छलता, परदुःख - कातरता, स्वावलंबन,
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