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मानसिक प्रदूषण से बिगड़ता पर्यावरण
उपाध्याय श्री गुप्तिसागर मुनिजी आज पर्यावरण की समस्या मानव अस्तित्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। परमाणु बम से मानव को जितना खतरा है, उसकी अपेक्षा पर्यावरण विनाश से सैंकड़ों गुना अधिक संकट है। इसलिए पर्यावरण के प्रति चिन्ता काफी बढ़ी है। पर्यावरण का संबंध हमारी संस्कृति, परम्परा, साहित्य, कला, अर्थनीति एवं समाज से ही नहीं, बल्कि हमारे पूरे अस्तित्व से है। भोपाल गैस काण्ड तो प्रदूषण नियंत्रण के अनुत्तरदायित्व की पराकाष्ठा है। पर्यावरण-विनाश की घातक, सूक्ष्म एवं अदृश्य प्रक्रियाएं पूरी उपेक्षा करती हुई हमारी प्राकृतिक संपदा को लूटे जा रही हैं। प्रति वर्ष भारत में लाखों हैक्टेयर जंगल नष्ट हो रहे हैं। जीवन-दायिनी नदियों के उद्गम-स्थल, पर्वतमालाओं को नष्ट-भ्रष्ट किया जा रहा है। आर्थिक उन्नति एवं वैज्ञानिक प्रबंध के नाम पर वन, चारागाह, नदी, तालाब आदि का संगठित रूप से दुरुपयोग किया जा रहा है। जब तक समाज प्राकृतिक संपदा के साथ अपने संबंध फिर से परिभाषित नहीं करेगा और प्रकृति की साज-संभाल अपने हाथों में नहीं लेगा, तब तक उसकी रक्षा असंभव है। पर्यावरण-संरक्षण के लिए एक विशेष सामाजिक-संस्कृति एवं एक विशिष्ट जीवन-पद्धति आवश्यक है। पर्यावरण से आशय
पर्यावरण दो शब्दों से बना है- परि+आवरण। परि परितः यानि चारों ओर से आवरण या वृत। पर्यावरण की सरल परिभाषा यह है कि पर्यावरण वह रक्षा कवच है, जो प्रकृति पुरुष के लिए उत्तराधिकार में दाय के रूप मे देती है। अन्य शब्दों में पर्यावरण प्रकृति का वह बैंक है जिसमें प्रकृति पुरुष वर्ग के जमा-नामे वाले पूँजी खाते का विवरण लिखती है। जिसके आधार पर सभी जीवात्माओं का जीवन व्यापार चलता है। पर्यावरण की सीमा में पृथ्वी, जल, प्रकाश, ध्वनि जैसे प्राकृतिक साधनों का समावेश है। पर्यावरण को अन्य सीमा रेखाएं यथा-व्यक्तिगत, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय, आज तक विभाजित नहीं कर सकी हैं।
व्यापक अर्थ में पर्यावरण से आशय है जीव-सृष्टि एवं वातावरण का पारस्परिक आकलन जिसमें सजीव प्राणी, आब-हवा, भूगर्भ और आस-पास की परिस्थिति विषयक विज्ञान का समावेश होता है। इसमें केवल मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, वनस्पति और अपार अगन्त सूक्ष्म जीवन सृष्टि का ही नहीं, अपितु समग्र ब्रह्माण्ड, तारकवृन्द, सूर्य-मंडल तथा पृथ्वी के आस-पास के सूर्य, चन्द्र, ग्रह, गिरि-कन्दरा, सरिता, सागर, झरने, वन-उपवन, वृक्ष, वनस्पति, भूपृष्ठ एवं जलपृष्ठ सहित पंच महाभूत तत्वों का भी समावेश होता है। ___संपूर्ण ब्रह्माण्ड में पृथ्वी ही एक ऐसा नक्षत्र है जिसमें प्राण और वनस्पति दोनों उपलब्ध हैं। पृथ्वी पर प्राण
और वनस्पति का सदैव एक संतुलन रहा है। यही प्रकृति का सहज गुण है—उसका स्वधर्म है। मनुष्य : प्रकृति का सखा
लेकिन भोगवादी संस्कृति ने मनुष्य की आवश्यकताओं को अंतहीन बना डाला है। इसी भोगवादी संस्कृति ने प्रकृति को अपना शत्रु मान लिया है और मनुष्य उसका स्वामी बन बैठा है। जिस प्रौद्योगिकी के जाल में हम घिरे हुए हैं उसमें प्रकृति का शोषण ही मुख्य लक्ष्य है, उसका संतुलन नहीं। यह पश्चिम की दृष्टि है। लेकिन भारत का सांस्कतिक आदर्श भोगवाद नहीं रहा है। हमारा आदर्श और परम्परा अध्यात्म में निहित है। जो अनंत है अथवा अंतहीन है, उसकी प्राप्ति केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही मिल सकती है। भारतीय दृष्टि प्रकृति के शोषण की न रहकर, उसके संरक्षण की, श्रद्धा की रही है। प्रकृति पर विजय पाने का अहंकार पश्चिम का रहा है, जबकि उसके साथ सहकार की दृष्टि भारतीय रही है। भारतीय दृष्टिकोण में मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं सखा है।
प्रकृति और मनुष्य को गहराई से जानने और समझने का प्रयत्न ही पर्यावरण को सही ढंग से सुरक्षित करने का आधार है। वस्तुतः संपूर्ण प्रकृति एवं मनुष्य के आपसी संबंधों में मधुरता का नाम ही पर्यावरण-संरक्षण है।
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