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जैनं जयतु शासनम्
शताब्दी आती है और चली जाती है। पीछे अपना इतिहास छोड़ जाती है। बीसवीं शताब्दी में जैन समाज का हास और विकास दोनों प्रकार का इतिहास बना है। पिछला लेखा-जोखा मिलाने का अब अवसर आ गया है, उसी के आधार पर इक्कीसवीं शताब्दी का कार्यक्रम नियोजित करना होगा ।
आचरण की दृष्टि से बीसवीं शताब्दी जैनों के लिए हासोन्मुखी रही। खान-पान की शुद्धता के बारे में जैन लोग कट्टर माने जाते थे, इस शताब्दी में इसमें शैथिल्य आया है, यह सत्य है, इसे स्वीकारना होगा, जैनों के हर समुदाय में कुछ व्यक्ति अखाद्य और अपेय का प्रयोग करने लग गए हैं। जैनत्व की पहचान मद्यमांस का परिहार माना जाता था, आज उसमें अंतर आने लगा है।
विकास की दृष्टि से समन्वय का वातावरण इस शताब्दी में बनना शुरु हुआ है, सांप्रदायिकता कुछ कम हुई है। सामूहिक कार्यक्रमों की कल्पना साकार होने लगी है । इस दृष्टि से भविष्य उज्जवल लगता है ।
इक्कीसवी शताब्दी के प्रवेश द्वार पर खड़े हम भविष्य की कल्पना करें तो अनेक रेखाचित्र सामने उभर रहे हैं। आचारशुद्धि, व्यवहारशुद्धि, दोनों का विकास तेजी से होना अभीप्सित है। विशेषकर युवावर्ग व विद्यार्थी वर्ग पर विशेष ध्यान देना होगा। उनके लिए विशेष कार्यक्रम नियोजित करने होंगे।
व्यवसाय-शुद्धि जो जैनों का गौरवपूर्ण उपक्रम था, उसे वापिस प्रतिष्ठित करना होगा । व्यवसाय-शुद्धि होने पर ही समाज व देश का गौरव बढ़ सकता है । समृद्धि में शुद्धता आए यह श्रावक समाज में विशेष अपेक्षित है।
आपसी सौहार्द में वृद्धि हो, इसकी विशेष उपयोगिता है, गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी, आचार्यश्री महाप्रज्ञजी इस बात को समय-समय पर दोहराते हैं— अपनी अवधारणा और चर्या को रखते हुए एक 'कॉमन मंच' बनना चाहिए। जहां से सामूहिक आवाज उठाई जा सके। संस्कृति विरुद्ध किसी उपक्रम का कारगर प्रतिकार किया जा सके।
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आपस में कोर्ट कचहरी चढ़ना हास्यास्पद है, रागद्वेष को बढ़ावा देना है। जितने भी आपसी झगड़े हैं, उन्हें आपस में ही सुलझा लेने के लिए उपक्रम की अपेक्षा है। इक्कीसवीं शताब्दी सब के लिए मंगलकारी हो, भगवान महावीर की वाणी घर-घर में गूंजे।
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मुनि सुमेरमल (लाडनू)
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