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अहिंसा हमारा राष्ट्रधर्म है,
अहिंसा जीवन का एक सरस संगीत है। उसकी सुमुधर लहरियाँ जन-जन के जीवन को ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण प्राणी जगत को आनन्द-विभोर बना देती हैं।
अहिंसा जीवन को सरसब्ज बनाने वाली एक महासरिता है। जब वह सरिता मन, वचन काया में इठलाती हुई, कल-कल, झल-झल करती हुई प्रवाहित होती है, तब मानव के जीवन में स्नेह, सद्भावना की हरियाली लहलहाने लगती है। अनुकम्पा के अंकुर फूटने लगते हैं। दया के सुरभि सुमन खिलने लगते हैं और विश्व -मैत्री के मधुर फल जन-जन के मन को आकर्षित करने लगते हैं। अहिंसा से जीवन रमणीय व दर्शनीय बनता है। अहिंसा की विमल धाराएं पंथवाद, प्रान्तवाद, भाषावाद, और सम्प्रदायवाद क्षुद्र घेरे कभी आबद्ध नहीं रही हैं और न कभी व्यक्ति विशेष की धरोहर रही हैं। अहिंसा में अमोघ शक्ति है, जिसके सम्मुख संसार की सभी संहारक शक्तियाँ कुंठित हो जाती हैं। अहिंसा के मर्म को समझने वाला डाकू भी साधु हो जाता है। दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझना ही अहिंसा की अनुभूति है । जब आत्मा अपने स्वभाव में स्थिर हो जाएगी, अपने को जाँचेगी, परखेगी तभी अहिंसा सम्यक् मार्ग पर आरूढ़ होगी। जिसके हृदय में प्रेम के अतिरिक्त कुछ नहीं होता, वही अहिंसा का स्थाई व शाश्वत रूप है।
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जब साधक के जीवन में करुणा की अमृत वर्षा होती है, तब अहिंसा का आलोक जगमगाने लगता है, तब वह दूसरे प्राणी को भी जीने का पूर्ण अधिकार देने के लिए प्रयत्नशील होता है। अहिंसा धर्म एक उच्चकोटि का आध्यात्मिक और सामाजिक धर्म है। जिससे हृदय में परिवर्तन होता है । यह मारने का नहीं, सुधारने का धर्म है । भारत के धर्म और दर्शन का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि मानव की प्रकृति अहिंसक है, अहिंसा उसका स्वभाव है, हिंसा करना विकृति है। अहिंसा कायरों का नहीं, वीरों का आभूषण है। अहिंसा की शक्ति अद्भुत है, अनुपम है, जो दानव को मानव बनाती है। मानव को देवाधिदेव बनाती है । इसीलिए अहिंसा हमारा राष्ट्र धर्म है। संस्कृति है, दर्शन है, और लोक-जीवन को सुखी बनाने की शाश्वत पूंजी है।
प्राणीमात्र की पीड़ा, सन्ताप, वेदना, झुलसन आदि से मुक्त बनाने के लिए करुणा से ओत-प्रोत दया, अनुकम्पा, कृपा आदि का जो प्रथम भाव जन्मा होगा, वही इस अहिंसा का जनक रहा होगा। जो व्यक्ति मात्र निवृत्तिपरक चिन्तन आचरण को प्रधानता देते हैं, उन्हें अहिंसा के आत्मिक स्वरूप की परख नहीं है । यह समझना चाहिए, क्योंकि प्रवृत्ति से शून्य निवृत्ति का स्वरूप भी शून्य ठहरेगा । उसमें मात्र निष्क्रियता के अलावा और कुछ भी नहीं मिल पाएगा । निष्क्रियता मानव जीवन का अभिशाप मानी जा सकती है। अहिंसा केवल निवृत्ति में चरितार्थ नहीं होती उसका वैचारिक उद्भव निवृत्ति से अवश्य हुआ है, परन्तु उसकी सार्थकता, कृतार्थता प्रवृत्ति में ही होती है । जीव की हत्या न करने पर भी दुष्ट भावों के कारण व्यक्ति हिंसक कहलाता है और जीव का घातक होने पर भी व्यक्ति शुद्ध भावों के होने के कारण अहिंसक कहलाता है ।
अहिंसा जीवन जीने की सुगम स्वाभाविक प्रक्रिया है। जिस प्रकार शब्दों में मिश्री के मिठास को नहीं बाँधा जा सकता है। वह तो अनुभव से ही जाना जा सकता । उसी परकार अहिंसा को प्रयोग से ही अनुभूति किया जा सकता है। अहिंसा मानव जाति के लिए वरदान है। अहिंसा बाद-विवाद का नहीं, आचरण का सिद्धान्त है, तर्क का नहीं व्यवहार का सिद्धान्त है। हाथी के पैर में जैसे सभी पैर समा जाते हैं उसी प्रकार अहिंसा में भी सभी धर्म और सद्गुण समा जाते हैं । वैर, वैमनस्य, द्वेष, कलह, घृणा, ईर्ष्या, दुःसंकल्प, क्रोध, अहंकार, दम्भ, लोभ, दमन आदि जितनी व्यक्ति और समाज की ध्वंसमूलक वृत्तियां हैं, वे सब की सब हिंसा की प्रतिमूर्ति हैं ।
आचार्य देवेन्द्र मुनि
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