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________________ कुछ लोगों के पैसे पड़ते हैं वे मुझे देखकर मांगने लगेंगे । भोला शिखर कुछ समझ न सका । उसने कहा- ठीक है कक्काजी, अगर आप चक्कर लगाकर जाते हैं तो घोड़े से चले जाइये, मैं सीधा पैदल चल कर आता हूं। दो बजे जामनगर के बाजार में साहू की 'दुकान पर मिलूंगा । दोनों दो नई दिशाओं की ओर बढ़ने लगे । मोहन घोड़े को टिटकारता हुआ जामनगर का रास्ता छोड़कर अपने शहर की ओर भागने लगा । अपनी इस वंचकता जितनी प्रसन्नता थी दुष्कर्म पर उतनी ही फिर भी वह बढ़ता चला जा रहा था । पर उसे शर्म । शिखर को दुकान पर खड़े-खड़े दो से चार बज गये पर मोहन नहीं पहुंचा । पहुंचे अवश्य वृजलाल, जो अभी-अभी पास के गांव से लौटे थे । शिखर वृजलाल को एक सांस में सब कुछ समझा गया और अन्त में स्वास छोड़ते हुए बोला- न चरौस्ते पर काकी जी मिली और न ही कक्काजी घोड़ा लेकर लौटे । वृजलाल को मोहन की धोखाधड़ी अच्छी नहीं लगी, वह मोहन का कपट-कर्म समझ गया । शिखर को किराये की साइकिल पर बैठाकर वह साइकिल शहर की ओर दौड़ाने लगा बाप बेटे बड़ी Latest से दूर-दूर तक नजरें फैलाते हुए मोहन को "देख रहे थे । प्राखिर दसवां मालि पार करते-करते उन्होंने मोहन को देख ही लिया । वृजलाल ने साइकिल की गति और तीव्र करने की कोशिश की तो चैन उतर गई । वृजलाल चैन चढ़ाने लगे और शिखर को मोहन की ओर दौड़ा दिया। मोहन भी सचेत था । वह इसी स्थिति की प्रतीक्षा में था । उसने तुरंत घोड़ा मोड़ दिया और पास के गांव में एक घर में जाकर छुप गया । वृजलाल की प्रांखों में जिन्दगी में पहली बार प्राज खून उतर आया था । उनकी इच्छा मोहन 2-12 Jain Education International पोपड़ी । छुपे हुए मोहन के पास पहुंचने में देर न लगी । अगले ही क्षरण वह मोहन के सामने जा पहुंचे । जमीन पर बैठा मोहन सि न उठा सका । आखिर वृजलाल ने शांति भंग की । कड़ी आवाज को कर्कश करते हुए बोलेमोहन ! तुम घोड़ा क्यों लाये ? मोहन सकपकाते हुए बोला- मुझे जरूरत थी । ये प्रश्न-उत्तर दोनों ओर से ठीक उसी ढंग से किये दिये गये जिस तरह बचपन में वृजलाल मोहन से पूछते थे । तुमने पड़ौसी के ग्राम क्यों तोड़े ? तो मोहन धरती देखता हुआ कहता- मुझे खाने थे इसलिये । और दोनों का क्रोध आधा हो जाता था । पर आज अभी क्रोध श्राघा तो क्या रंचमात्र भी कम नहीं हुआ था । वृजलाल फिर गरजे - मोहन साफ-साफ बोलो ! तुम चाहते क्या हो ? मोहन चुप रहना चाहता था ऐसे वक्त, किन्तु न जाने क्यों उसके प्रोंठ चल पड़े । वह कहने लगा- भैया मैं हिस्सा बाट चाहता हूं। घर गृहस्थी का हिस्सा । हिस्सा शब्द सुनकर वृजलाल के स्वर मध्यम होने लगे । वह गंभीर होकर बोले- किस चीज का हिस्सा भैया ? पिताजी बीड़ी बनाते-बनाते मर गये थे। उनके पास ऐसा क्या था जिसका आधा मैं तुम्हें दे सकता था । न घर, न जमीन, न दुकान, न रुपये। थे तो हम दोनों सो एक शहर चला गया, एक गांव में रहता है । अब क्या चाहिये तुम्हें ? अगर कुछ मालूम हो तो तुम्हीं बताओ । मोहन वृजलाल के इस प्रश्न पर भीतर-भीतर ही कुछ शर्मिन्दा हुआ। घर की कोई वस्तु उन दोनों से छुपी नहीं थी, मोहन, चाहते हुए भी क्या मांगे यही उसकी समस्या थी। सच तो है वृजलाल के पास भी है ही क्या जो मोहन उससे मांगता । परन्तु श्राज मोहन को अपने बच्चों की भूख चुप होने नहीं दे रही थी । वह चेहरे पर ढीठता लाते महावीर जयन्ती स्मारिका 76 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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