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________________ सुनेगा? रूप आत्मन् ! तू अब भी सोचता है कि कोई आगे बढ़, मैं ही दानव हैं, जो अशक्त बनाये जा रहा है । अहिंसा की बागडोर मेरे हाथ में हैं। मैं चाहूँ तो सब कुछ यहां तक कि मानवीय गुणों अरे मूर्ख ! महावीर वाणी की ओर जरा का ह्रास कर सकता हूँ। तू मेरी शक्ति को नहीं दृष्टिपात तो कर....... उन्होंने कहा था-हे भव्य जानता । जितने भी सांसारिक कार्य हैं उन सभी को जीव ! तू यदि इस संसार से पार होना चाहता कराने वाला मैं ही हूँ फिर भी इतना उदास, इससे है तो लक्ष्य को मत भूलो। इस नश्वर शरीर, कुछ भी नहीं होने वाला। रुपया, पैसा, कुटुम्ब, भाई-बन्धुओं का मोह आखिर कब तक देखता रहेगा? उठा इस मिथ्यात्व से अकर्मण्य कहीं का, अहिंसा, सत्य की छाया में दृष्टि और तू अपनी ही नौका का सहारा ले। पहुँचकर मुझे डर दिखाना चाहता है। मैं बलवान इस संसार में तेरी पुकार सुनने वाला नहीं। हूँ। मुझसे बचकर जा ही नहीं सकता। तू अपने अापको महावीर का भक्त समझता है। तू भक्त इस उत्तम मनुष्य जन्म को व्यर्थ ही न समाप्त नहीं, यदि उनका भक्त होता तो इतना स्वार्थी नहीं कर दे। उत्तम 'श्रमणधर्म' का आश्रय लेकर होता । अपने आपको वीतरागता की शरण में ले जा, तो क्या आप महावीर को जानते हो ? । जहाँ तेरी पुकार सुनने वाला बैठा हुआ हैं। वह इसी के इंतजार में न जाने कितने समय से ये भी कोई पूछने की बात"। मै तो जन्मबैठा है। जन्मान्तर से जानता हूँ और तुम उनकी छत्र-छाया में रहते हुए भी चंचला लक्ष्मी के मद में उन्मत्त ___ अब भी सोच में पड़ गया, ज्ञानचक्षु से देखो होकर उसी को सर्वस्व समझ कर छोटों का गला तो मालूम हो जायगा कि मैं ही सब कुछ सूनने दबाना चाहते हो। तुमने उनके धर्म को नहीं वाला हूँ। समझा। यदि समझा भी तो स्वार्थवश । शायद उनकी भक्ति से लखपति-करोड़पति बनने की इच्छा आखिर कैसे ? से । ऐसी भक्ति से महावीर के सिद्धान्तों का पालन ऐ जहाज के पंछी ! तू घूम-फिरकर अपने करने वाले नर ! तेरी शरण नरक में नहीं। मैं स्थान पर आकर बैठ गया। मैंने सारी दुनियां की हिसक हा र हिंसक होकर भी स्वार्थ दृष्टि से रहित हूँ। परन्तुसैर कर ली, सच है जितना दृष्टि ने साथ दिया अनाथामबंधनां दरिद्राणां सुखदुःखिनाम् । उतना ही सोच लिया, पर यह भी सोचना था कि जिनशासनमेतद्धि परमं शरणं मतम् । इससे भी विशाल कोई दुनियां है, जिसमें कभी सुखदुःख की छांह ही नहीं पड़ती, उस दुनियां के व्यक्ति अर्थात् जो अनाथ हैं, जिनका कोई बन्धु नहीं को दर्पण की तरह समस्त लोकालोक के पदार्थ है, जो दरिद्र हैं और जो सुखी अथवा दुःखी है दिखते रहते हैं, वे समस्त कर्मों से रहित परम पद उनके लिए जिनेन्द्र शासन ही एकमात्र शरण है । में स्थित हो जाते हैं, वहां से कभी उसे आना नहीं इतना मैं अवश्य जानता हूँ, पर क्या करूं परिस्थिपड़ता । तू भी यही चाहता है, इसलिए अपनी तियों ने मुझे इस लायक बना दिया। पर तुम उत्कृष्ट निधि को पहचान ले । श्रमण संस्कृति के उपासक स्वार्थ को त्यागकर 3-8 महावीर जयन्ती स्मारिका 762 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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