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________________ सूर्य का है, जो तीन पदों में संसार को नाप लेता पुरातन स्मृति के अवशेष : त्रिविक्रम कथा है । प्रातः काल उदय होकर सूर्य एक पद से आकाश में सर्वोच्च स्थान को प्राप्त कर लेता है और फिर पुराणों में प्राप्त त्रिविक्रम कथा या वसुदेव संध्या तक सम्पूर्ण पृथ्वी को नाप लेता है तथा हिण्डी में प्राप्त या अन्य ग्रंथों में उपलब्ध रूपान्तर रात्रि में पाताल को भी नापकर फिर उदय हो ऋग्वेद में वरिणत सूर्य की दिनचर्या सब मिलाकर जाता है । सूर्य के ये तीन पद कुछ-कुछ दो पद से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाती। तो फिर यही ही लगते हैं । अतः वामन का बलि के शरीर पर एक मार्ग है कि हम तमाम पौराणिक, धार्मिक, तीसरा चरण पड़ने की बात जुड़ गई। पुराकथाओं और उनमें व्याप्त रूढ़ घटनाक्रमों की परतों को उघाड़ कर देखें। सांस्कृतिक आदानइन बातों का भेद ऋग्वेद के सूक्तों से खुल प्रदान के मोड़ पर आर्यों व आर्य पूर्व असुर निवाजाता है । मण्डल 7 सूक्त 100वें की ऋचा 5, 6 सियों के सम्बन्ध विकास की ओर देखें; तो पता व 7 में तीन पद से नापने वाले विष्णु को 'शिपि- लगेगा कि पार्यों के जिस प्रारम्भ में आये कबीले विष्ट' कहा है अर्थात् प्रकाश किरणों से वेष्टित; के लोगों को ऋग्वेद में देवता माना गया है वे जो कि नाम सूर्य का है । इसी सूक्त की 4थी ऋचा आर्य जाति के ही सामान्य लोग थे। यह देव में तीन पदों से नाप कर सारी पृथ्वी मनु की देन प्रारम्भ में एक ऐसी सामाजिक विकास की घुमन्तु कही गई है परन्तु वामन ने तो कभी पृथ्वी मनु को अवस्था में थे । भारत में यह जाति कैस्पियन समुद्र देने का प्रस्ताव, पुराण कथा में नहीं किया। फिर की ओर से आयी। ईरान में इन देवों को असुर मण्डल 8 (बाल खिल्य विभाग के) सूक्त 4 की जाति मिली, जो खेतिहर थी। देवों में ब्राह्मण व 3री ऋचा में स्पष्ट कहा गया है कि विष्णु तीन क्षत्रिय वर्ग का विकास बाद में हुआ जब वे कृषिपदों में 'मित्र' के धर्मानुसार संसार को नाप कर कर्मी हो गये। प्रारम्भ में देवों और असुरों के इन्द्र के पास आये । 'मित्र' नाम भी सूर्य का ही पुरोहित भृगु वंश के थे। कालान्तर में भृगु वंशी है । ये तीन पद सूर्य के कार्य की ओर ही संकेत पुरोहित असुरों के रहे। ईरानी या असुर सूर्य करते हैं। मण्डल 1 सूक्त 22 की 16वीं व 17वीं उपासक व अग्नि पूजक रहे हैं। देवों में यज्ञ का ऋचारों में भी विष्णु के तीन पदों का उल्लेख है विकास असुरों के प्रभाव से हुआ । यह बात वामन और ऋचा 20 में विष्णु का परमोच्य स्थान कथा से भी सिद्ध होती है कि असुर राज बलि यज्ञ प्राकाश कहा है; जो सदैव देखा गया है । मण्डल कर्ता व ब्राह्मण पूजक था । असुरों में स्त्री पूजा 1 सूक्त 155 की 6वीं ऋचा में उनके स्थान को थी जो देवों में स्वीकृत हुई। अदित की पूजा स्त्री परमोच्च स्थान से महान तेज को प्रकाशित करता पूजा = मातृ पूजा ही है । जैसे जैसे देवों का जीवन है । मण्डल 7 सूक्त 99 ऋचा 7 में फिर विष्णु को स्थिर हुआ उनमें सत्ता प्राप्ति की आकांक्षा जन्मी शिपिविष्ट कह कर सम्बोधित किया है। इसी प्रकार अन्य सूक्तों में भी विष्णु के तीन पद से और देवासुर संग्राम राज्य सत्ता की प्राप्ति के स्पष्टतः सूर्य कार्य का संकेत है ।। संघर्ष की कहानी है । यह युद्ध सैकड़ों वर्ष चला। 1. डा० ज्वालाप्रसाद सिंघल : ऋग्वेदीय और पौराणिक देवताओं में अन्तर-पृष्ठ 59 Vishveshvar and Indological Journal, Vol One, No 1, 1963 2-90 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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