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________________ प्रत्येक सम्प्रदाय यहां एक दूसरे के विरोध में खड़ा कल्याणकारी भावना की पूजा करो। तुम्हें चारों ओर था । जहाँ तक अन्त्यज, हरिजन, गोंड़, भील आदि सौन्दर्य दिखाई देगा, प्रानन्द दिखाई देगा। अमूर्त आदिवासियों का प्रश्न था वे तो दीर्घकाल से वैसे का मूर्त पर आरोहण आवश्यक है क्योंकि अमूर्त ही तिरस्कृत थे उन की स्थिति और अधिक जर्जर पूर्ण है, मूर्ति सीमा है, बन्धन है और यह बनायी जाने लगी थी। अत: इस अवसर पर (Bondage) संसार और उसके दुराग्रहों का कारण मुसलमानों के एकेश्वरवाद ने उन्हें सम्मोहित करना है। समष्टि के प्रति समत्वभाव मूर्ति के विराटत्व प्रारंभ कर दिया था । अतः भारत गहरी पराधीनता के दर्शन कराने में समर्थ है, यही संत का उद्देश्य में उतरता जा रहा था। तब आवश्यक हो गया था। क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिये, सुनिश्चित था कि इस खण्डित शक्ति को (Concentrate) जीवन दर्शन के लिये जिस पर उन्होंने सोचा और किया जाये। देश के स्वतन्त्र अस्तित्व के लिये यह वे चले । अपरिहार्य था। आवश्यक हो गया था कि इस अतएव यह मानकर चलना कि संत तारणभूमिका के लिये धर्म प्राण जनता के धर्म बोध को तरण मूर्ति अथवा मूर्तिपूजा के विरोधी थे औचित्य परिष्कृत दिशा का ज्ञान कराया जाये। अतएव पूर्ण नहीं । तारण तरण समाज मूर्ति के स्थान पर धर्म की विकृतियों के लिये जो धर्माचार्य उत्तरदायी शास्त्रों को स्वीकार कर रहा है, यह भी मूर्ति पूजा थे उन्हें ही अब उनके निराकरण के लिये आगे का पर्यायवाची ही है। शास्त्र क्या है, वाणी का अाना अनिवार्य हो गया था। अतः जैन धर्म के (Tape recorder) और वाणी वह भी मूर्त है, अस्तित्व के संरक्षण के लिये जो उत्तरदायी होगा जिसका भी आकार है उसका भी स्थल है भले ही भारतीय स्वतन्त्रता के लिये, संत तारणतरण ने वह इन पशुओं से दृष्टिगत न हो। अतः कोई कहा, “दर्शन, ज्ञान और चारित्र की शुद्धता की भाव बिना आकार लिये नहीं होता अतः भाव पूजा स्थिति में मूर्ति बाहर अन्य स्थिति में स्थापित नहीं आखिर मूर्तिपूजा ही है। हाँ सब कुछ समाप्त हो होगी। मनुष्य ही वह मूर्ति है जिसका हमें अनावरण जाना, वहाँ फिर पूजा का स्थान ही कहाँ, कौन करना है, उसकी प्राण प्रतिष्ठा करना है । आचरण पूज्य कौन पूजक । मात्र एक सौंदर्य आनन्द स्वयं शुद्धि से मन के विकास की स्थिति केवल यही है में रूपान्तरित । कहने का तात्पर्य कि जिस संत ने कि हम समस्त चेतन जगत् को स्वयं में रूपान्तरित जैन परम्परा के २४ तीर्थङ्करों को स्वीकार कर करके देखें। यदि कोई उच्च हो सकता है तो यह लिया वह मूर्ति पूजा का विरोध करके क्या तीर्थकरों मेरी उच्चता होगी ओर यदि कोई नीचा तो वह के अवतरण को अस्वीकार करेगा । कदापि नहीं। होगी केवल मेरी अधमता। जब तक ये समस्त यह तो सम्प्रदाय की रूढ़िगत अज्ञता है जो संत मूर्तियाँ दुखी हैं, मेरे आनन्द की, सुख की कल्पना तारण तरण को प्रस्तुत करने में असमर्थ रहा । व्यर्थ है । संसार मुझसे बाहर नहीं हो सकता और मूर्ति चाहे पत्थर की हो, काष्ठ की हो, मिट्टी की इसलिये अयथार्थता के बोध को लेकर जीना हो चाहे हम आप हों, पूजनीय न पत्थर है न मिट्टी, अकल्याणकारी है। स्वयं को पाषाण में परिवर्तित न काष्ठ, न यह शरीर पूजनीय है उसमें व्याप्त कर जड़ मत बन जाने दो। स्वयं की भावना की भावना उपलब्धि और भावना का अस्तित्व पृथक पूजा करो उसके विकास की पूजा करो। मूर्ति तो नहीं । किसी शव की पूजा नहीं होती और शव से मात्र पाषाण ही है भावना तो शिल्पकार की है, रहित कोई भावना भी नहीं होती। अतः मूर्ति वह भावना पूज्य है, वह कला पूज्य है, वह श्रम पूजा अनिवार्य है पूजा के प्रभाव के लिये, मोक्ष पूज्य है। उस पवित्र स्नेह की पूजा करो, उस के लिये।. 2-78 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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