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________________ म पुरुष सौन्दर्य का चित्रण युवा स्थूलभद्र के पक्ष, मास, वर्ष आते हैं और चले जाते हैं, किन्तु वर्णन के अन्तर्गत हुआ है। यहां भी सूरचन्द्र ने कोश्या का प्रिय आने का नाम भी नहीं लेता। उपर्युक्त विधि को ग्रहण किया है । सन्तोष यह है हृदय में उठती हुई हूकों ने उसे जर्जर बना दिया है। कि स्थूलभद्र का सौन्दर्य चित्रण अपेक्षाकृत अधिक चित्रशाला विशालेयं चन्द्रशाला च शालिनी। सन्तुलित है, यद्यपि उसका भी आपादमस्तक समूचे प्रतिशाला मरालाश्च शल्यायन्तेऽद्य त्वद्विना । अंगों का चित्रण किया गया है । रस विधान पक्षमासतुवर्षाणि मुहुरायान्ति तान्यपि । वर्तमान रूप में स्थूलभद्रगुणमाला शृंगार- पुनरेको न मे नाथो हला एति यतः सुखम् ॥६/१३५ प्रधान काव्य है । शृंगार में भी संयोग की अपेक्षा किं करोमि क्व यामि कस्याने प्रत्करोम्यहम् । वियोग का अधिक चित्रण हुआ है। कोश्या का वदामि कस्य दुःखानि वियुक्ता प्रेयसा सह । भाग्य कुछ ऐसा है कि उसे मिलन के सुख की अपेक्षा विरह का दुःख अधिक झेलना पड़ता है। सम्भोग के अन्तर्गत कोश्या तथा स्थूलभद्र के स्थूलभद्रगुणमाला में विप्रलम्भ की कई स्थानों पर समागम के अतिरिक्त कवि ने नायिका के सात्विक अभिव्यक्ति हई है। स्थूलभद्र के प्रव्रज्या ग्रहण भावों का भी रोचक वर्णन किया है। चिर विककरने पर कोश्या के विरह वर्णन में तथा उसके लता के पश्चात् स्थूलभद्र को सहसा अपने सम्मुख प्रेमपत्र में विप्रलम्भ की टीस है। किन्तु उसकी देखकर कोश्या उल्लास से पुलकित हो जाती है । तीव्रतम व्यञ्जना कोश्या के पूर्वराग-वर्णन से हुई उसमें सात्विक भावों का उदय होता है, जो है। राजपाटी में मन्त्रिपुत्र स्थूलभद्र को देखकर उसकी कामातुरता को व्यक्त करने में समर्थ है। कोश्या कामविह्वल हो जाती है। दासी पद्मिनी द्वारा वरिणत उसकी विकलता हृदय को छूने में शान्तरस शृगार का सहायक बनकर आया समर्थ है। है । जैसा पहले कहा गया है, स्थूलभद्रगुणमाला का तवैकसंगमिच्छन्ती दीना हीना परक्रिया। पर्यवसान कदाचित् शान्तरस में ही हुआ था, किन्तु कोश्या मे स्वामिनी स्वामिन् वर्तते व्याकुलाबला ॥ सामूहिक रूप में भी वह शृगार की तीव्रता को २/१५४ मन्द नहीं कर सकता । अपनी विषयासक्ति की पृष्ठवेल्लमानास्ति वल्लीव तरुसंगमवजिता। भूमि में पिता के वध का समाचार पाकर स्थूलभद्र क्षीणप्राणा गतत्राणा निरम्बु संवरीव वा ॥२/१५७ का मन आत्मग्लानि से भर जाता है। उसे सुख, स्वामिन् सा यदि सघ्रीची कथंचिद् वीक्षतेक्षणम्। संपदा, बैभव, भोग, समूचा जीवन तथा जगत् भंगुर तदाप्यर्वनिमीलाक्षी त्वदन्येक्षणाशंकया ।। २/१६० एवं प्रवंचनापूर्ण प्रतीत होने लगता है। प्रव्रज्या में सख्या अपिवचः श्रुत्वा सा शृणोति न सादरा। ही वह सच्चा सुख पाता है । एवं जानाति मां मान्यस्त्वद्रूपा भ्रमयेज्जनः ॥२/१६१ भाषा विरह वर्णन में तो विप्रलम्भ अपनी मार्मिकता भरतेश्वरबाहुबलिमहाकाव्य की भांति स्थूलके कारण करुणरस की सीमा तक पहुंच गया है। भद्रगुणमाला की भाषा में गरिमा तथा सरलता १. १. १. वही, २/११, ३३, ३८, ७३. वही, ५/२६, २९, ३०, ३३. वही, ८/१३, १६, २६. महावीर जयन्ती स्पारिका 76 2-17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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