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________________ प्रकृति की विविध अवस्थाओं तथा मुद्रानों से सूरिचन्द्र की गम्भीर परिचिति है । उसकी दृष्टि में प्रकृति भावशून्य अथवा मानव जीवन से निरपेक्ष नहीं है । उसमें मानव हृदय की प्रतिच्छाया दृष्टि गोचर होती है, परिणामतः वह मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत है तथा उसके समान नाना चेष्टात्रों में रत है । मानव मन के सहज ज्ञान तथा प्रकृति के सूक्ष्म पर्यवेक्षण के कारण सूरचन्द्र प्रकृति तथा मानव में रोचक तादात्म्य स्थापित करने में सफल हुआ है । उसकी शरत् काल की रेशमी साड़ी तथा हंसों के नूपुर पहन कर नव वधू के समान प्रकृति के प्रांगन में आती है। कमल उसका सुन्दर मुखड़ा है, चकवे पयोधर तथा शाली छरहरा शरीर है । काश वस्त्राम्बुजमुखा नीलोत्पलदलाम्बिका । स्वच्छविप्रनदुर्लभ्या निनददहंसनृपुरा ॥ शालियष्ट्रयायता चक्रपयोधरा भवनेशं । प्रतीच्छन्ती वधूरिव शरद् बभौ ।। ११ / १३-१४ अन्य हासकालीन काव्यों की तरह स्थूलभद्र गुणमाला में प्रकृति उद्दीपन पक्ष को अधिक पल्लवित नहीं किया गया है। केवल एक दो स्थानों पर ही प्रकृति मानव की भावनाओं को प्रान्दोलन करती हुई चित्रित हुई है । वर्षा काल में बादल की मन्द्र मधुर गर्जना तथा बिजली की दमक कामिनियों को नायकों की मनुहार करने को विवश कर देती है । 2 सौन्दर्य चित्ररण: सूरचन्द्र ने जिस मनोयोग से प्रकृति का चित्रण किया है, सौन्दर्य वर्णन में भी उस की वही तत्परता दिखाई देती है । स्थूलभद्रगुणमाला में स्त्री तथा पुरुष दोनों के शारीरिक सौन्दर्य का चित्रण समान सफलता से किया है। मानव सौन्दर्य को रूपायित करने में कवि ने संस्कृत काव्य की लोक १. स्थूलभद्रगुरणमाला - १० / १०२, 2-16 Jain Education International प्रिय नखशिखप्रणाली का आश्रय लिया है । अपने सौन्दर्य वर्णन को प्रेषणीय बनाने के लिए वह नये - नये उपमान जुटाने में दक्ष है, वास्तविकता तो यह है कि अन्य वर्णनों के समान सौन्दर्य-चित्ररण में भी सूरचन्द्र ने अपने प्रस्तुतों के भण्डार का उदारता पूर्ण प्रयोग किया है । वह एक-एक अंग के लिए बड़ी सरलता से एकाधिक उपमानों की योजना कर सकता है । कोश्या के स्तनों का ही वर्णन उसने सत्ताईस उपमानों के द्वारा किया है । यह अनावश्यक विस्तार सदैव कवित्व का हितैषी नहीं किन्तु इससे कवि - कल्पना की उर्वरता का परिचय अवश्य मिलता है । I नारी सौन्दर्य के चित्रण में अपना कौशल प्रकट करने के लिये सूरचन्द्र ने कोश्या का वर्णन लगभग 200 पद्यों के पूरे एक सर्ग में किया है । वेणी से लेकर उसके पांवों के नखों तक को वर्णन का विषय बनाया गया है। उसके श्वास को भी कवि नहीं भुला सका । विस्तृत होते हुए भी वर्णन में यदि रोचकता बराबर बनी रहती है, इसका समूचा श्रेय कवि की कल्पना शक्ति को है, जो निरन्तर एक से एक अनूठे उपमान ग्रथित करती जाती है । प्रस्तुत अंश से यह बात स्पष्ट हो जायगी कबरीमध्यगैः पुष्पैर्यस्या भाति स्म बन्धुरैः । मन्ये कामेन जित्राय तूणो बारीभृतः किमु ||३/६ वेणीमूले शिरोरत्नं यस्याः प्रशस्यते भृशम् । स्मरेण स्त्रीनिधि पातुं धृतः किं मणिभृत्करणी ॥ ३ / १० सर्वतः कुन्तलाः कृष्णा रक्तसीमन्तसंगताः । जाने लावस्य पाथोधौ ज्वलज्वालोऽस्ति वाडवः || ३ / ९२ रमण्या रोमराजीयं सुरूपा परिपेशला । मन्ये लावण्यवाहिन्या बालसेवालमञ्जरी ||३ / १६६ For Private & Personal Use Only महावीर जयन्ती स्मारिका 76 www.jainelibrary.org.
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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