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________________ सन्देशकाव्यों में पार्वाभ्युदय का स्थान .डॉ० रमेशचन्द्र जैन जैन मन्दिर के पास, बिजनौर, उ० प्र० सन्देश या दूतकाव्य लिखने की परम्परा बहुत विनयसेन मुनि हुए। विनयसेन मुनिवर की प्रेरणा प्राचीन है । सन्देशकाव्यों में कालिदास का मेघदूत से जिनसेन मुनि ने मेघदूत नामक खण्डकाव्य से सबसे प्राचीन माना जाता है। उसी के आधार पर परिवेष्टित काव्य की रचना की। उक्त श्लोक से बाद में अनेक कवियों ने सन्देशकाव्यों का प्रणयन पूर्व जिनसेन ने कालिदास तथा उनके मेघदूत काव्य किया । ८वी हवीं शताब्दी ईस्वी के प्राचार्य का बड़े आदर के साथ स्मरण कर राजा अमोघवर्ष जिनसेन ने अमोघवर्ष के शासनकाल में पार्वाभ्युदय द्वारा पृथ्वी की सदैव रक्षा किए जाने की कामना नामक काव्य की रचना की। यह काव्य ३६४ की है। इस जानकारी से ज्ञात होता है कि मन्दाक्रान्ता वृत्तों में मेघदूत के श्लोकों के चरणों जिनसेन के गुरु वीरसेन थे तथा विनयसेन गुरु भाई की समस्यापूर्ति के लिए लिखा गया है और थे । विनयसेन की प्रेरणा से जिनसेन ने जैन सन्देशकाव्यों की परम्परा में प्रथम स्थान रखता पार्वाभ्युदय की रचना की थी। उस समय राजा है। इसके श्लोकों का अवलोकन करने पर हवीं अमोघवर्ष शासन करते थे। अमोघवर्ष शक सं० शताब्दी में मेघदूत का पाठ कैसा था ? इसका ७३६ (वि० सं० ८७१) में राजगद्दी पर बैठे थे। निर्धारण सहज हो जाता है । इस काव्य में चार ये पराक्रमी राष्ट्रकूट राजा थे और जिनसेन के सर्ग हैं प्रथम सर्ग में ११८, द्वितीय में ११८, उपदेश से जैन धर्म में दीक्षित हो गए थे। तृतीय में ५७ और चतुर्थ में ७१ श्लोक हैं। पार्वाभ्युदय का उल्लेख हरिवंश पुराण के कर्ता इसके कर्ता जिनसेन द्वितीय के नाम से प्रख्यात हैं। प्राचार्य जिनसेन प्रथम (शक सं० ७०५ ई० सन् पावर्वाभ्युदय के अन्त में जिनसेन स्वामी ने ७८३) ने किया है। इस आधार पर विद्वानों का कहा है कहना है कि इसकी रचना आठवीं शती में हो चुकी थी। श्रीवीरसेमुनिपादपयोदभृङ्ग अनुशीलनश्रीमानभूद्विनयसेनमुनिगरीयान् । पाश्र्वाभ्युदय में समस्यापूर्ति के काव्यकौशल तच्चोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण द्वारा समस्त मेघदूत को ग्रथित कर लिया गया है। यद्यपि दोनों काव्यों का. कथा भाग सर्वथा भिन्न काव्यं व्यधायि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥४।७१। ' है, तथापि मेघदूत की पंक्तियाँ पार्वाभ्युदय में बड़े अर्थात् श्री वीरसेनमुनि के चरण कमलों के ही सुन्दर और स्वाभाविक ढंग से बैठ गई हैं । भौंरे के समान तपोरूप लक्ष्मी से युक्त, श्रेष्ठतर समस्यापूर्ति की कला कवि पर अनेक नियन्त्रण महावीर जयन्ती स्मारिका 76 2-3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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