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________________ सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की बहुत सी क्रियाएं बाहय दृष्टि से देखने पर समान ज्ञात होती हैं किन्तु उनका फल भिन्न-भिन्न क्यों होता है यह बताते हुए विद्वान् लेखक ने कहा है कि जैन समाज यदि विश्व को अपने सिद्धान्तों की ओर आकृष्ट करना चाहता है तो उसे स्वयं प्रयोगशाला बनना होगा। तभी वह कह सकेगा कि हमारे पास वह शक्ति है जो संसार की समस्त समस्याओं को सुलझा सकती है। खद यह है कि ऐसी बात पर आज कान कौन देता है ? प्र० सम्पादक जैन-दृष्टि .डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री 10/17 शक्तिनगर, दिल्ली-7 जैन धर्म का कथन है कि जो बात सम्यक्- शक्ति विश्व के लिए वरदान बन सकती थी वही दृष्टि में उत्थान का कारण है वही मिथ्यादृष्टि में अभिशाप बन गई। देवता, राक्षस हो गया। पतन का कारण बन जाती है। सम्यक्ष्टि का उपयोगिता के आधार पर मूल्यांकन के इस सिद्धांत ज्ञान सम्यकज्ञान है और मिथ्यादृष्टि का मिथ्या। को पाश्चात्य दर्शन में (उपयोगितावाद) कहा जाता सम्यक्दृष्टि का चारित्र सम्यक्चारित्र है और है। उसका प्रतिपादन सर्वप्रथम अमरीकी दार्शनिक मिथ्यादृष्टि का मिथ्या। इसका अर्थ यह है कि विलियम जेम्स ने किया था। उनके पश्चात् अनेक वस्तु का मूल्य उसके उपयोग पर निर्भर है । सम्यक्- विचारकों ने उसका विकास किया। इस समय यह दृष्टि जिस वस्तु का उपयोग स्व पर कल्याण के सिद्धांत समस्त अमरीका पर छाया हया है। लिए करता है, मिथ्यादृष्टि उसी के द्वारा अपने राष्ट्रीय मनोवृत्ति का निर्माण और जीवन का अहंकार की पुष्टि करने लगता है। दूसरे को हानि संचालन इसी सिद्धांत के आधार पर किया जा रहा पहुंचाता है और स्वयं पापी बनता है। सज्जन है। जैन दर्शन ने हजारों वर्ष पहले इस सिद्धांत को अपने शारीरिक बल को दूसरों की रक्षा के उपयोग अर्थक्रियाकारित्व के रूप में प्रस्तुत किया। उसका में लाता है, दुर्जन उसी के द्वारा दूसरों को तंग कथन है कि घड़े को धड़ा तभी कहना चाहिए जब करता है । सज्जन अपने धन बल द्वारा अभाव वह अपना काम करे । यदि उसमें पानी नहीं रखा पीड़ितों की सहायता करता है, दुर्जन उसका मिथ्या जा सकता तो उसे घड़ा कहना ठीक नहीं है । इसी प्रदर्शन करके दूसरों में ईर्ष्या उत्पन्न करता है। दृष्टि को सामने रखकर हमें सामाजिक शक्ति का पश्चिम ने वैज्ञानिक प्रगति की और अणुशक्ति के पर्यालोचन करना चाहिए । धनबल, जनबल, विद्या रूप में बहुत बड़ा बल प्राप्त कर लिया । किन्तु बल, चारित्रबल, तपोबल आदि शक्ति के अनेक रूप उसका लक्ष्य मानव कल्याण के स्थान पर विनाश हैं। हमें यह देखना है कि हमारे पास उनका बन गया । संहार की विशाल योजनाएं बनने लगीं कितना संग्रह है और उपयोग किस दिशा में हो और भयंकर परीक्षण होने लगे। फलस्वरूप जो रहा है। महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-169 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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