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________________ का क्षेत्र पौगलिक पदार्थों से सम्बन्धित होने के कारण, सापेक्षवाद में द्रव्य, क्षेत्र श्रौर काल ये तीन भेद अनेकान्त दर्शन में किसी प्रकार समाहित हो जाते हैं परन्तु भाव नामक चौथा भेद सापेक्षवाद की अपेक्षा अनेकान्तवाद की व्यापकता को व्यक्त करता है । सन्मति महावीर के जीवन की दो तीन कथाएं इस सम्बन्ध में प्रचलित हैं । जिनके माध्यम से उन्होंने सरल ढंग से इस सिद्धान्त को लोगों को समझाया था । एक बार महावीर अपने नन्द्यावर्त प्रासाद की चौथी मंजिल पर थे, नन्द्यावर्त प्रासाद 7 मंजिल वाला था । उनके खिलाड़ी मित्रों ने आकर माता त्रिशला से पूछा कि महावीर कहाँ हैं ? त्रिशला ने कहा - ऊपर हैं । मित्र ऊपर के खण्ड में पहुचे, वहाँ महावीर नहीं थे। मित्रों ने वहाँ उनके पिता सिद्धार्थ से पूछा महावीर कहाँ हैं, सिद्धार्थ ने बताया कि महावीर नीचे हैं । मित्र पुनः नीचे आए, महावीर वहाँ थे ही नहीं, मित्र हैरान हो गए, बाद में सभी मंजिलें देखने पर मित्रों ने महावीर को चौथी मंजिल में पाया । मित्रों ने महावीर से कहा, - हम लोगों के पूछने पर तुम्हारी माता ने तुम्हें ऊपर तथा पिता ने नीचे बताया था, परस्पर विरोधी बातें सुनकर हम हैरान थे । महावीर ने कहा मित्रो ! तुम यह बताओ कि कौवा कैसा होता है। मित्रों ने तपाक से उत्तर दिया कि कौवा काला होता है । इस उत्तर को सुनकर महावीर ने कहा कि कौवे के पंख काले होते हैं, खून लाल होता है और हड्डियां सफेद होती हैं। इस प्रकार एक ही वस्तु अनेक धर्मात्मक होने से, जिस धर्म की विवक्षा होती है उसकी दृष्टि से वह उस का रूप है । दूसरे धर्म की विवक्षा होने पर दूसरा रूप भी हो सकता है । चूंकि इस प्रासाद 1-154 Jain Education International में मैं चौथी मंजिल पर था अतः नीचे की मंजिल की अपेक्षा ऊपर और ऊपर की मंजिल की अपेक्षा नीचे बताया जाना सत्य था । जैसे एक बीस वर्षीय लड़के को 16 वर्षीय की अपेक्षा बड़ा और 24 वर्षीय की अपेक्षा छोटा बताना सत्य है । इसी प्रकार मथुरा नगर को इन्द्रप्रस्थ ( देहली) की अपेक्षा दक्षिण में, ग्वालियर की अपेक्षा उत्तर में, जयपुर की अपेक्षा पूर्व में और लखनऊ की अपेक्षा पश्चिम में कहना सत्य है । यद्यपि चारों दिशाओं में मथुरा की स्थिति बताना विरोधात्मक है, परन्तु अनेकान्तात्मक होने से चारों दिशाओं में उस अपेक्षा से स्थिति सत्य है । स्याद्वाद के कथन की शैली से जिस दिशा में बताया गया है उस दिशा में सत्य है । कहते हैं एक बार राजा श्रेणिक के दरबार में एक प्रकरण आया । कुलकर नामक नित्यवादी व्यक्ति ने मृगचक्षु नामक अनित्यवादी के ऊपर घातक प्रहार किया । मृगचक्षु ने श्रेणिक के दरबार में कुलकर के विरुद्ध शिकायत प्रस्तुत की । जब कुलकर से पूछा गया कि तुमने मृगचक्षु के ऊपर घातक प्रहार क्यों किया ? नित्यवादी कुलकर ने उत्तर दिया कि मृगचक्षु का सिद्धान्त प्रनित्यवाद का सिद्धान्त है । प्रनित्यवाद की यह मान्यता है कि क्षरण-क्षरण में प्रत्येक वस्तु बदलकर दूसरे रूप में भिन्न हो जाती है । ऐसी परिस्थिति में जिस मृगचक्षु के ऊपर प्रहार किया गया, वह मृगचक्षु तो बदल चुका है, शिकायत करने वाला मृगचक्षु जिस मृगचक्षु पर प्रहार किया गया उससे भिन्न है, बदला हुआ है। तथा प्रहार करने वाला कुलकर भी इनके सिद्धांत से बदलकर भिन्न हो चुका है । ऐसी परिस्थिति में घातक प्रहार करने वाला मैं नहीं, मुझसे भिन्न कोई दूसरा कुलकर रहा होगा, जो अपराधी है दण्ड भी उसे ही मिलना चाहिए था । महावीर जयन्ती स्मारिका 76 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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