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________________ जीवन में पांच महाव्रतों की रक्षा के लिये, उसका आध्यात्मिक चिन्तन छूट गया है। प्राध्या- उन्हें परिपुष्ट बनाने के लिये और जीवन को त्मिक चिन्तन के अभाव में आज के मानव में रस्ग, सुसंस्कारवान् मनाने के लिये उक्त 25 चारित्र द्वष, क्रोध, मान, माया, लोभ की दुष्प्रवृत्तियां भावनाएं बताई गई हैं । इन भावनाओं के चिन्तन, अधिकाधिक घर करती जा रही हैं, परिणामस्वरूप मनन और जीवन में इनका प्रयोग करने से साधक उसका जीवन कुठाओं से ग्रस्त, निराशाओं से को त्यागमय, तपोमय, एवं अनासक्त जीवन जीने आक्रान्त और अशान्त बन गया है । शुभ भावना की प्रेरणा मिलती है। परिणामस्वरूप वह से अर्थात् पवित्र भावना से व्यक्ति का मनोबल संयम के पथ पर सफलतापूर्वक चल सकता है। बढ़ता है। वह मुसीबत माने पर घबराता नहीं वरन् उसका बड़े धैर्य और साहस से मुकाबला भावना भवनाशिनी करता है। पर आज के मानवीय जीवन में इसका ___ शुभ, भावना मानव को जन्म मरण के चक्रों अभाव है। इसीलिये आज व्यक्ति थोड़ी सी से मुक्ति दिलाने वाली है। शुभ भावनाओं के मुसीबत आने पर जल्दी टूट जाता है। अखबारों प्रभाव से ही प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने केवलज्ञान प्राप्त में आत्महत्या के जो किस्से रातदिन पढ़ने को किया। शुभ भावना के प्रभाव से पशु भी स्वर्गगति मिलते हैं, उसका एक मात्र कारण शुभ भावना के अधिकारी बने हैं। महामुनि बल-भद्र की सेवा का अभाव है। में रहने वाला हरिण ग्राहार बहराने की उत्कृष्ट भावना से काल करके पांचवें देवलोक का, बारह भावना चण्डकोशिक सर्प भगवान महावीर के द्वारा प्रतिबोध प्राप्त कर दया की सुन्दर भावना से अोतप्रोत पांच महाव्रतों की 25 चारित्र भावनाओं की होकर आठवें देवलोक का, नन्दण मणियार का भांति बारह वैराग्य भावनाओं का आगम एवं जीव मेंढ़क के भव में भगवान के दर्शनों की शुभ आगमेतर ग्रथों में बहुत वर्णन मिलता है और भावना से काल कर सद्गति का अधिकारी बना। इस पर विपुल परिमाण में साहित्य रचा गया है । अतः चाणक्य नीति में ठीक ही कहा है-"भावना इस भावधारा का चिन्तन निर्वेद एवं वैराग्योन्मुखी होने से इसे वैराग्य भावना कहा गया है। इस भवनाशिनी।" भावना से साधक में मोह की व्याकुलता एवं यों तो प्रत्येक मनुष्य के हृदय में अनेक व्यग्रता कम होती है तथा धर्म ब अध्यात्म में भावनाएं उठती हैं पर धर्म ध्यान से परिपूर्ण स्थिरीकरण होता है । बारह भावनाओं का स्वरूप भावना ही उसके कर्मों का नाश करती है। आज संक्षेप में इस प्रकार हैके वैज्ञानिक युग में मानव का चिन्तन दिन पर । दिन भौतिक सुखों की खोज में भटक रहा है। () भान (1) अनित्य भावना वह हजारपति है तो कैसे लखपति-करोडपति बन इस भावना का अर्थ यह है कि जगत् में जितने सकता है, एक बंगला है तो दो-तीन और कैसे भी पौद्गलिक पदार्थ हैं वे सब अनित्य हैं। यह बन जायें के स्वप्न देखता रहता है । - इच्छाएं शरीर, धन, माता, पिता, पत्नी, पुत्र, परिवार, आकाश के समान अनन्त होती हैं। उन्हीं अनन्त घर, महल, आदि जो भी वस्तुएं हमसे सम्बन्धित इच्छाओं की पूर्ति के लिये नये-नये रास्ते ढूढने हैं या जो भी वस्तुएं हमे प्राप्त हैं वे सब अनित्य हैं, में वह दिन-रात लगा रहता है । परिणामस्वरूप क्षणभंगुर हैं, नाशवान् हैं, फिर इन पर मोह महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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