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________________ ', "अशुभ भावना के कई भेद किये जा सकते हैं । (ग) काम भोगों की तीव्र अभिलाषा, "उत्तराध्ययन" सूत्र के 36 वें अध्ययन में चार (घ) अतिलोभ करके बार-बार नियाण अशुभ भावनाओं का उल्लेख किया गया है । (निदान) करना (4) किल्विषि भावना के चार भेद (1) कन्दर्प भावना (2) अभियोग भावना (क) अरिहन्तों की निन्दा करना । (3) किल्विषी भावना और (4) आसुरी (ख) अरिहंत कथित धर्म की निन्दा करना । भावना । (ग) आचार्य, उपाध्याय की निन्दा करना । "स्थानांग सूत्र' में चार अशुभ भावनाओं के (घ) चतुर्विध संघ की निन्दा करना । प्रत्येक के चार-चार भेद करके सोलह प्रकार बताये अशुभ भावना के इन रूपों का विवेचन करने हैं जो इस प्रकार हैं का यही अभिप्राय है कि इसके दुष्परिणामों से (1) आसुरी भावनामों के चार भेद बचा जाय और अपने अन्तकरण को पवित्र किया जाय। (क) क्रोधी स्वभाव, (ख) अति कलहशीलता, शुभ भावना (ग) अाहारादि में श्रासक्ति रखकर तप चरित्र को समुज्जवल बनाने के लिये शुभ करना, भावना का बड़ा महत्व है। शुभ भावना के (ध) निमित्त प्रयोग द्वारा आजीविका बार-बार चिन्तन से साधक सुसंस्कारी बनता है करना। और कल्याण-मार्ग की अोर प्रवृत्त होता है । वह संसार में रह कर भी सांसारिक कलुषता में डूबता (2) अभियोगी भावना के चार भेद नहीं । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, और (क) प्रात्मप्रशंसा----अपने मुह से अपनी अपरिग्रह ये पांच महाव्रत हैं। ये व्रत जीवन में प्रशंसा करना। असंयम का स्रोत रोक कर संयम का द्वार खोलते (ख) परपरिवाद-दूसरे की निन्दा करना। हैं। इन महाव्रतों की निर्दोष परिपालना के लिये (ग) भूतिकर्म - रोगादि की शांति के लिये यह आवश्यक है कि इन महाव्रतों पर चिन्तन अभिमंत्रित राख आदि देना। किया जाय । ये भावनाएं चारित्र को दृढ़ करती हैं। इसलिये इन्हें चारित्र भावना भी कहते हैं । (घ) कौतुककर्म-अनिष्ट शांति के लिये मंत्रोपचार आदि कर्म करना। "प्रश्न व्याकरण" सूत्र के आधार पर पांच महाव्रतों की भावनाओं का विवेचन इस प्रकार है--- 3) सम्मोही भावना के चार भेद (क) उन्मार्ग का उपदेश देना, (1) अहिंसा महावत को पांच भावनाए(ख) सन्मार्ग --यात्रा में अन्तराय या बाधा (क) ईर्यासमिति भावना-गमनागमन डालना। में सावधानी बरतना। 1. स्थानांग सूत्र, 4 । 4, सूत्र 354 (मुनि) श्री कन्हैयालाल कमल द्वारा सम्पादित । महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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