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________________ भावना शब्द का अर्थ प्रायः चिन्तन मनन ही समझा जाता है किन्तु वास्तव में भावना का अर्थ यहाँ तक ही सीमित नहीं है । जैन दर्शन में चारित्र को भी भावना ही का रूप दिया गया है। भावना का दूसरा.अर्थ होता है अभ्यास । भावना' शब्द जब चिन्तन मनन के अर्थ में प्रयुक्त होता है तो अनुप्रेक्षा कहलाता है। द्वादश अनुप्रेक्षा में यह ही अर्थ है क्योंकि वे चिन्तन मनन तक सीमित हैं किन्तु व्रतों की जो भावनाएं प्राचार्यों ने बताई हैं वे चिन्तन मनन की नहीं अभ्यास की वस्तु हैं अतः वहां अर्थ है अभ्यास। विदुषी लेखिका ने दोनों ही प्रकार की भावनाओं का विस्तृत विवेचन श्वे परम्परानुसार अपनी इस गवेषणापूर्ण रचना में प्रस्तुत किया है। प्र० सम्पादक जैनदर्शन में भावना-विषयक चिन्तन .डा० (श्रीमती) शान्ता भानावत जयपुर भावना : अर्थ और परिभाषा उसे भावना कहते हैं । 1 प्राचार्य मलयगिरि ने भावना का जीवन में बड़ा महत्व है । किसी भावना को परिकर्म अर्थात् विचारों की साज-सज्जा कहा है । जैसे शरीर को तेल, इत्र, अंगराग आदि भी विषय पर मनोयोगपूर्वक चिन्तन करना या विचार करना भावना है। चिन्तन करने से मन से बार-बार सजाया जाता है, वैसे ही विचारों को में संस्कार जागृत होते हैं । जैसा चिन्तन होगा, अमुक विचारों के साथ बार-बार जोड़ा जाता है।' वैसे ही संस्कार बन जायेंगे। कहा भी जाता है-. आगमों में कहीं कहीं भावना को अनुप्रक्षा भी जैसी नीयत वैसी बरकत । अर्थात् जैसी भावना कहा गया है। "स्थानांग सूत्र" में ध्यान के प्रकरण होगी वैसा ही फल मिलेगा। अतः भावना एक में चार अनुप्रेक्षाएं बताई गई हैं। वहां अनुप्रेक्षा प्रकार का संस्कार अथवा संस्कार मुलक चिन्तन का अर्थ भावना किया है। अनुप्रेक्षा का अर्थ है आत्मचिन्तन । प्राचार्य उमास्वाति ने भी भावना है । इसे हम विचारों की तालीम (ट्रेनिंग) भी कह के स्थान पर अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग किया है सकते हैं। और कहा है--भगवद् कथित विषयों पर चिन्तन "अावश्यक सूत्र" के प्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य करना अनुप्रेक्षा है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी भावना हरिभद्र ने भावना की परिभाषा देते हुए कहा है- के स्थान पर "अणुवेक्खा" शब्द का प्रयोग किया "भाव्यतेऽनयेति भावना" अर्थात् जिसके द्वारा मन है। उन्होंने बारह भावना पर एक नथ भी लिखा को भावित किया जाय, संस्कारित किया जाय, है, जिसका नाम है "बारस अणुवेक्खा"। 1. आवश्यक 4, टीका । 2. वृहत्कल्पभाष्य, भाग 2 गाथा 1285 की वृत्ति, पृ० 397 । 3. स्थानांग 4 । 1 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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