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________________ होता । गह प्रारम्भ विहीनता या अहिंसा नहीं है यह अलग बात है कि आज के श्रमिक में भी कि अन्य लोग दुगुने सक्रिय रहकर महाव्रतीनामी श्रम के प्रति निष्ठा नहीं है और केवल रोजी-रोटी किसी विशिष्ट व्यक्ति की नितांत निष्क्रियता का के लिए श्रम करता है। पत्थर तोड़ने वाला संवर्धन करते रहें। मन पर से और तन पर से श्रमिक या तो पत्थर ही तोड़ता है या बाल-बच्चों सामन्ती अध्यात्म की चादर उतरे बिना अनासक्ति- के लिए रोटी कमाता है । इससे आगे बढ़कर वह पूर्ण परिग्रह को अपरिग्रह में रूपान्तरित नहीं किया पत्थर तोड़ने को भगवान् का मन्दिर बनाना नहीं जा सकता । आज स्थिति यह है कि संग्रही संग्रह से मानता । जिस दिन श्रमिकों में, शिल्पकार में यह प्रतिष्ठा पाता है और त्यागी गण उस संग्रह पर सुख दृष्टि पा जायेगी कि उसका श्रम ही सौन्दर्य का की नींद सोकर मोक्ष के सपने देखते हैं। सागर है, उसका श्रम ही समाज रूपी भगवान का परिग्रह की प्रतिष्ठा तोड़ने के लिए समाज में मन्दिर है, तो उसका रोजी-रोटी लगाव टूट जायेगा, और व्यक्ति में श्रम के प्रति निष्ठा उद्भूत होनी पत्थर पत्थर न रहकर भगवान् का बिब बन चाहिए । संग्रह के प्रति लगाव उसी में होता है जो जायेगा। लेकिन ऐसी स्थिति पैदा न करने का श्रम से भागता है । सच्चा श्रमिक वह है जो अपने दायित्व उन पर ही है जिन्होंने अब तक श्रम को हाथ-पैरों पर सबसे अधिक भरोसा करता है और खरीदने में प्रतिष्ठा और धर्म माना है। कल के लिए संग्रह करने की वृत्ति से दूर रहता है। 'कल क्या होगा ?' इसी चिता में परिग्रह के बीज महावीर के नाम पर प्रतिष्ठित धर्मग्रंथों मैं हैं और श्रम के प्रति तिरस्कार है। बारीकी से अथवा कि जिन शासन में अपरिग्रह का जो वर्णन देखा जाय तो हर व्यक्ति दम निकी मिलता है, वह तत्कालीन समाज व्यवस्था की सकता है कि अब तक हमारे धर्म सिद्धांतों का रुख परिणति है। उसी को लेकर यदि हम चादर बुनते भी संग्रह को प्रतिष्ठा देने का रहा है। श्रमिक रहेंगे तो आने वाला युग इस लीक पर चलने वाले अर्थात् आर्थिक दृष्टि से विपन्न व्यक्ति को निर्धन अपरिग्रही विरागियों को क्षमा नहीं करेगा। माना गया और इस स्थिति के लिए उसके पूर्व- परिग्रह यानी पदार्थ की विपुलता । यह सृष्टि कर्मों को जिम्मेवार माना गया । किसी भी में रहने ही वाला है । सवाल यह है कि हम अपनी धर्माचार्य या महापुरुष ने यह नहीं कहा कि गरीवी कुशलता और प्रवीणता का कितना लाभ समाज संग्रह और शोषण का परिणाम है। इस धरा पर को दे पाते हैं । प्रत्येक प्राणी का विकास दूसरी कार्लमार्क्स ही पहला व्यक्ति हुआ जिसने वैज्ञानिक हजारों परिस्थितियों के कारण होता है। उन ढंग से प्रतिपादित किया कि मनुष्य वी अभाव- हजारों परिस्थितियों के अनन्त उपकार एक-एक ग्रस्तता या गरीबी उसके भाग्य का फल नहीं है। व्यक्ति पर होते हैं। व्यक्ति कहीं भी रहे-चाहे यदि कर्मशीलता हिंसा है, प्रारम्भ मात्र हिंसा लोकांत में ही स्थित हो जाये- तब भी सृष्टि के है यानी श्रम करना ही हिंसा है तो फिर अहिंसा प्रति उसका उत्तरदायित्व कम नहीं होता। वहां को निष्क्रिय होना ही था। अहिंसा की इस कर्म- तक पहुंचाने में भी समाज ही सहायक होती है। शून्यतापरक व्याख्या ने अहिंसा को निस्तेज बना अतः संक्षेप में आज आवश्यकता इस बात की है दिया है । वह मात्र अभिनय की चीज रह गयी है। कि हमारे परिग्रह या अपरिग्रह की मान्यताओं का मजाक का विषय रह गयी है। नये सिरे से, वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में पुनर्विचार हो। 1-124 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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