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________________ त्रिया तक पैसा प्रबल हो बैठा है। प्रर्य को व्यर्थ हमारी मुश्किल यह है कि पैसे को या तो सिद्ध करने की शक्ति किस में है, नहीं कहा जा हम शैतान समझते हैं या फिर भगवान् समझते हैं । सकता। महावीर स्वयं प्रसंग थे, निर्ग्रन्थ थे, दोनों स्थितियों में पैसे का महत्व प्रात्यन्तिक बढ़ निर्वस्त्र थे, और समाज में समता का आध्यात्मिक जाता है । प्रादमी अनशन से भी मर सकता है मूल्य प्रतिष्ठित करने के लिए कटिबद्ध थे, फिर भी और अधिक खाने से भी मरता है। बाह्य पदार्थ क्या वे समाज में से परिग्रह को मिटा सके ? उनके में प्रात्मा से अधिक शक्ति कदापि नहीं हो सकती, नाम पर लिखे गये ग्रन्थों में सैकड़ों कहानियां एवं किन्तु शारीरिकता के स्तर से या कि मानसिक आख्यान ऐसे मिल सकते हैं जिनमें धन की प्रचुरता स्तर से अधिक मनुष्य की गति नहीं है, इसीलिए का दर्शन होता है। धन के त्याग का वर्णन तो अपने बचाव में बाह्य या स्थूल पदार्थों पर सारा है, पर उसीसे यह भी ध्वनित होता है कि धन का दोष मढ़ देता है। महत्व भी कम नहीं है । धन-सम्पत्ति के त्याग का अहसास अगर बना रहता है या कथा-पाठक के समाज लक्ष्मी की पूजा करता है । लक्ष्मी शब्द मन पर यह छाप पड़ती है कि अमुक ने वैभव का के अर्थ की खींचतान करना व्यर्थ है। असल में त्याग किया है, तो यह चीज वैभव की प्रचुरता वह लक्ष्मी की पूजा है । लक्ष्मी को 'मुक्ति' कहना का आकर्षण ही निर्माण करती है। वैसा ही है जैसे साहित्य की सरसता के लिए मुक्ति को 'रमा' कहना। एक ओर तो हम मोक्ष हमारे ऋषि-मुनि कह सकते हैं कि पैसा को रमा-विहीन ही मानते हैं और दूसरी ओर स्वयं बदमाश है, वह अादमी को गिराता है और उससे मुक्ति भी हमारे निकट 'रमा' की उपमा में प्रस्तुत विवेक नष्ट हो जाता है । यह बात पैसे का महत्व हो जाती है । लक्ष्मी का सीधा-सादा और व्यावहामानकर ही कही जा सकती है। मुझे नहीं लगता रिक अर्थ 'अर्थ' ही है। और समाज ऐसा करके कि पैसे में इतनी ताकत है कि मनुष्य पर उसका गलती कहां करता है ? अर्थ-प्राप्ति के लिए जो काबू रहे । पैसे की कीमत है और वह भी राज्य परिश्रम, प्रयास, पराक्रम करना पड़ता है, जो अथवा हमारे द्वारा की गई है। अब यह व्यक्ति खून-पसीना एक करना पड़ता है, उसका कोई पर निर्भर है कि वह पैसे को सिर पर चढ़ाता है हिसाब है ? समाज को परिग्रह के लिए दोष देना या पैरों के तले दबाता है या कि जेब में रखता अपने को धोखे में डालना है। पूरा का पूरा है । नदी और कुएँ में आदमी डूबकर मर जाता समाज कभी भी अपरिग्रही नहीं बन सकेगा। है । यह क्या पानी की शैतानियत है ? पानी न बल्कि जो लोग परिग्रह की सीमा-मर्यादा बांध शैतान है, न भगवान् । पानी किसी को मार नहीं लेते हैं, वह भी दोषपूर्ण हो तो आश्चर्य नहीं। डालता, मार नहीं सकता। आदमी अपनी ही कमजोरी, असमर्थता या अज्ञान से डूबता-मरता क्या यह बात छिपी है कि हजारों साधुहै। समझ-बूझकर पानी से काम लिया जाय तो संन्यासियों और मुनियों के अध्यात्म का सिंचन भी सब ठीक है । वह 'जीवन' ही है । पानी न हो तो भौतिक पैसे से ही होता रहता है। धन को पाप प्राण तक जा सकते हैं। यही बात पैसे की है। का घर कहने और समझने वाले लोगों का पुण्य पैसा सिर्फ पैसा है। उसे हम सिर्फ पैसा समझे और और परलोक उसी पाप पर सुरक्षित होता है । समझ बूझकर उसका उपयोग करें तो वह बड़े यह कैसी विडम्बना है कि तन को तोड़कर, रातकाम का है। दिन मेहनत करके जो लोग साधु-संन्यासियों का महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-122 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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