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________________ अपरिग्रह का अर्थ है मूर्च्छा, प्रासक्ति अथवा ममत्व भाव का त्याग । जो अपरिग्रही होता है वह अपने शरीर को भी अपना नहीं समझता, उसे पर समझता है और उसमें प्रासक्त नहीं होता । राग द्वेष आदि विकारी भाव पर है अतः वे भी परिग्रह ही हैं । पूर्ण अपरिग्रही तो साधक ही हो सकता है। संसार में रह कर तो परिग्रह के बिना कार्य एक क्षण भी चल ही नहीं सकता तो फिर वर्तमान में उस अपरिग्रह का स्वरूप क्या 'इस पर विशिष्ट दृष्टि से मान्य लेखक की इस रचना में विचारणीय चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। उनकी दृष्टि में संग्रह पाप नहीं है यदि उसका उपयोग समाज के लिए हो । प्र० सम्पादक अपरिग्रह या श्रम- निष्ठा ? श्री जमनालाल जैन श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी तीर्थंकर महावीर ने अपरिग्रह को धर्म कहा है और वे स्वयं भी असंग थे--इतने कि स्थूल दृष्टि से भी उनका तन शून्य बन गया था । तन को ढोने की विवशता थी, अन्यथा भावक्षेत्र में तो तन भी भार ही था, पराया था । अपरिग्रही की समाज में एक प्रतिष्ठा भी है । परिग्रह अपरिग्रह के चरणों में शरण पाने को तरस उठता है । अपरिग्रह की ऐसी प्रतिष्ठा को निहार कर कभी-कभी ईर्ष्या भी होने लगती है । अनेक बार यह प्रतिष्ठा ही सीमा लांघ कर परिग्रह बन जाती है । Jain Education International भगवान् महावीर अपरिग्रह को अन्तिम छोर तक खींच ले गये । निर्वस्त्र होकर उन्होंने लज्जा की गाँठ भी तोड़ दी - निर्ग्रन्थ बन गये । तन पर तो गाँठ रखी ही नहीं, मन और वारणी में भी कोई गाँठ नहीं थी । भीतर और बाहर, दोनों श्रोर सेवे कोरे या खालिस हो रहे । ऐसी साधना नितान्त कठिन है और जिसके जीवन में यह सहज बन जाती है उसे नमन ही किया जा सकता है । ये कहीं भी टिक जाते, जो भी मिलता ग्रहण कर लेते । कडवे-मीठे बोल भी उनके अन्तस्को बेध नहीं पाते थे । जो परिस्थिति उनके सामने प्राती, उसकी गहराई में पैठते और कुछ ऐसा समाधान खोज निकालते कि समस्या में उलझा व्यक्ति त्रारण की महावीर जयन्ती स्मारिका 76 राह पा जाता। उसमें उनका श्राग्रह रंच मात्र न होता । आगम ग्रन्थों या पुराण-ग्रंथों से पता नहीं चलता कि भगवान् महावीर ने शरीर श्रम का कोई काम किया था । श्राज शरीर श्रम की जो परिभाषा प्रचलित है, उस अर्थ में तो नहीं ही किया था । वे राजपुत्र थे और उनके सामने मूलभूत समस्या शरीर - श्रम की नहीं थी । वे श्राध्यात्मिक दृष्टि से समाज में समता लाना चाहते थे । अध्यात्म दृष्टि के परिपुष्ट हुए बिना सामाजिक विषमता का उन्मूलन करना उन्हें असम्भव लग रहा था । उनका पराक्रम अद्भुत था । उनके जैसा निर्ग्रन्थ पुरुष सुस्त, काहिल या निराश नहीं हो सकता । जिस बात का बीड़ा उन्होंने उठाया, उसके लिए ऐसे ही पराक्रम की आवश्यकता थी कि व्यक्ति का खाना-पीना, सोना-जागना, पहनना - ओढ़ना वही बन जाय । अपरिग्रह की बात करते समय ध्यान बरबस पैसे पर अटकता है । पैसे में ऐसी क्या बात है कि उसको छोड़कर आज कोई विचार ही नहीं टिकता । पैसा केन्द्र में हो तो बाकी सब ठीक है, अन्यथा सब बेकार ! जन्म से लेकर मृत्यु के बाद की For Private & Personal Use Only 1-121 www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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