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________________ all में से विवेकी और दयालु लोगों को ब्राह्मण वर्ण में स्थापित किया गया । अब यहां विचारणीय बात यह है कि जब शूद्रों में से भी ब्राह्मरण बनाये गये, वैश्यों में से भी बनाये गये और क्षत्रियों में से भी ब्राह्मण तैयार किये गये तब वर्ण अपरिवर्तनीय कैसे माना जा सकता है ? दूसरी बात यह है कि तीन वर्गों में से छांट कर एक चौथा वर्ण तो पुरुषों का तैयार हो गया, किन्तु उन नये ब्राह्मणों की स्त्रियां कैसे ब्राह्मण हुई होंगी ? कारण कि वे तो महाराजा भरत द्वारा आमन्त्रित की नहीं गई थीं, क्योंकि वे तो राजा लोग प्रौर उनके नौकर चाकर श्रादि ही श्राये थे । उनमें सब पुरुष ही थे । यह बात इस कथन से और भी पुष्ट हो जाती है कि उन सब ब्राह्मणों को यज्ञोपवीत पहनाया गया था । यथातेषां कृतानि चिन्हानि सूत्र : पद्माह्वयान्निधेः । उपात्तै ब्रह्मसूत्रा रेकाद्य कादशांत कैः ( पर्व ३८- २१ ) 11 अर्थात्- - पद्म नामक निधि से ब्रह्मसूत्र लेकर एक से ग्यारह तक ( प्रतिमानुसार ) उनके चिन्ह किये अर्थात् उन्हें यज्ञोपवीत पहनाया । यह तो सर्वमान्य है कि यज्ञोपवीत पुरुषों को ही पहनाया जाता है । तब उन ब्राह्मणों के लिये स्त्रियां कहां से आई होंगी ? कहना न होगा कि वही पूर्व की पत्नियां जो क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होंगी ब्राह्मणी बना ली गई होंगी । तब उनका भी वर्ण परिवर्तन हो जाना निश्चित है । शास्त्रों में भी वर्णलाभ करने वाले को अपनी पूर्व पत्नी के साथ पुनर्विवाह करने का विधान पाया जाता है । यथा- "पुनविवाहसंस्कार: पूर्व सर्वोऽस्य संमतः ।" प्रादिपुराण पर्व ३६-६० ।। महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International इतना ही नहीं, किन्तु पर्व ३६ श्लोक ६१ से ७० तक के कथन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि जैन ब्राह्मणों को अन्य मिध्यादृष्टियों के साथ विवाह सम्बन्ध करना पड़ता था, बाद में वे ब्राह्मण वर्ण में ही मिल जाते थे । इस प्रकार वर्णों का परिवर्तित होना स्वाभाविक सा हो जाता है | अतः वर्ण कोई स्थाई वस्तु नहीं है, यह बात सिद्ध हो जाती है । मादिपुराण में वर्ण परिवर्तन के विषय में अक्षत्रियों को क्षत्रिय होने के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है: ---- "क्षत्रियाश्च व्रतस्था: क्षत्रिया एव दीक्षिता: । " इस प्रकार वर्ण परिवर्तन की उदारता बतला कर जैन धर्म ने अपना मार्ग बहुत ही सरल एवं सर्व कल्याणकारी बना लिया है । यदि पुन: इसी उदार एवं धार्मिक मार्ग का अवलम्बन लिया जाय तो जैन समाज को बहुत कुछ उन्नति हो सकती है और अनेक मानव जैनधर्मं धारण करके अपना कल्याण कर सकते हैं । किसी वर्ण या जाति को स्थाई या गतानुगतिक मान लेना जैन धर्म की उदारता की हत्या करना है। यहां तो कुलाचार को छोड़ने से कुल भी नष्ट हो जाता है । यथा कुलावधिः कुलाचाररक्षणं स्यात् द्विजन्मनः । तस्मिन्नसत्यसौ नष्टक्रियोऽन्यकुलतां ब्रजेल ॥। १८१ ॥ श्रादिपुराण पर्व ४० अर्थ — ब्राह्मणों को अपने कुल की मर्यादा और कुल के प्रचारों की रक्षा करना चाहिये । यदि कुलाचार-विचारों की रक्षा नहीं की जाय तो वह व्यकि अपने कुल से नष्ट होकर दूसरे कुल वाला हो जायगा । तात्पर्य यह है कि जाति, कुल, वर्ण आदि सभी क्रियाओं पर निर्भर हैं। इनके बिगड़ने- सुधरने पर इनका परिवर्तन हो जाता है । For Private & Personal Use Only 1-107 www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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