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________________ सदा-सदा के लिये ही मुक्त होना होगा, इस नर जन्म स्थान, एक बन से दूसरे धन में दुद्धर्ष तप को तपत को सार्थक करना ही होगा। मैं अब विवाह नहीं हुये साधना की तेज आंच में अपने को तपाते हुये मौन करूंगा। विहार करते रहे । तीन दिन से अधिक कहीं भी एक एक दिन महावीर अपने नंद्यावर्त प्रासाद में स्थान पर न ठहरते । वर्षावास में चार मास तक एक बैठे विचारों के पारावार में प्राप्लावित थे कि तभी । ही स्थान पर रहते । अपनी इस अखण्ड अनन्य लौकान्तिक देव आकर उन्हें नमस्कार करते हैं और साधना के दौरान उन्होंने सत्य के अन्वेषण में नयेउनके चरणों में निवेदन करते हैं कि प्रभो ! आपने नये प्रयोग किये, नदी, पर्वत, गुफाओं, श्मशानों आदि अपने इस मनुष्य भव के ३० वर्ष तो राज्य में जगहों पर दीर्घ-दीर्घ अवधि पर्यन्त अनवरत एकाकी रहकर ही व्यतीत कर दिये अपना प्रात्म-कल्याण ही रहे । जहाँ देखा और सुना कि अमुक स्थान अब आप कब करेंगे ? जीवन क्षणभंगुर है, इसका खतरे से खाली नहीं है ऐसे भयायह स्थानों पर क्या भरोसा ? समय सरकता ही जा रहा है।। निरन्तर लोगों के मना करने पर भी खतरों में ही आपको अब अपने प्रात्म-कल्याण में लग ही जाना विचरे । अज्ञानी और अनार्य लोगों द्वारा भयानक व चाहिये । लौकान्तिक देवों की बात महावीर के कष्टप्रद से कष्टप्रद उपसर्गों के किये जाने पर भी सदा हृदय मन्दिर में मानो घर कर गई । यद्यपि समता भाव को धारण किये हुये ध्यान में ही लीन महावीर अब तक राज्यकार्य में ठीक उसी तरह रहे । महावीर के महावीरत्व के सामने उपसर्ग करने से रह रहे थे जिस तरह से जल में कमल रहता वालों को सदा मुंह की ही खानी पड़ी। उनके है । किन्तु अब महावीर की विचारधारा में एका- सामने जो भी पाया, चाहे उनकी उपासना करने, एक बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया और अब उन्हें चाहे लड़ने या मारने, समता और शांति की सौम्य एक-एक क्षण भी राज्य में रहना मुश्किल लगने मुद्रा को देखते ही सबके मस्तक महावीर के लगा। वैराग्य लक्ष्मी हर समय छाया के समान चरणों में झुक गये । सभी महावीर के चरणउनके पीछे लगी उनसे गृहादि परिग्रहों से विरत किङ्कर बन गये । ऐसे उन श्रमण-महावीर की 12 होने के लिये मानों अाग्रह करती रहती। वर्ष की अक्षुण्ण तप की महासाधना के पश्चात् घातिया कर्मरूपी 4 महारिपुत्रों को आपके सामने तभी मंगसिर कृष्णा दशमी का वह शुभ दिन हार माननी ही पड़ी और चैत्र कृष्ण आया जब महावीर ने आन्तरिक और बाह्य सभी चतुर्थी के दिन महावीर को कैवल्यश्री ने वरण प्रकार के परिग्रहों को तिलांजली देकर 28 मूल- किया। अब वे अनन्त ज्ञान के स्वामी हो गये थे, गुणों को धारण कर जिन दीक्षा ले ली । अब उनका नरजन्म सार्थक हो गया था । वह अनन्त महावीर जिन साधु हो गये थे, बड़े-बड़े राज- ज्ञानादि गुणों के महापुञ्ज तीर्थङ्कर महावीर प्रासाद, रमणीक अट्टालिकायें, राज्य की रमणियों निरन्तर 30 वर्षों तक विभिन्न जनपदों में विहार के रसभरे हास परिहास व भोगोपभोग की सभी करते रहे और संसार के दु:खों से दुःखी प्राणियों अनुपम वस्तुएँ उनसे सदा-सदा के लिये दूर हो गई के लिये अमृत के समान अपने उपदेश रूपी मेघों थीं। अब अवनि ही जिनकी शय्या, अम्बर ही जिनका की वर्षा करते रहे । महावीर प्रभु अधिकतर प्रोढ़ना और दिशायें ही जिनके वस्त्र हो गई थीं "बिहार" प्रदेश में विहार करते रहे जिस कारण ऐसे वह परम निर्ग्रन्थ श्रमण महावीर 12 वर्ष तक (संभवतः) उस प्रदेश का नाम ही बिहार प्रदेश शाश्वत् सत्य की सतत् खोज में एक स्थान से दूसरे पड़ गया है । 12 वर्ष तक निरन्तर उपदेश देते 1-98 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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