________________
६८
श्रमणविद्या-३
का वस्तु से कोई साक्षात् सम्बन्ध भी नहीं है। उसका आकार नितान्त आरोपित है। इसीलिए बौद्ध काल की स्वतन्त्र सत्ता का निषेध करते हैं तथा उसे संस्कृत का पर्यायवाची मानते हैं। वर्तमान ही वस्तुसत्
सौत्रान्तिक मत में अतीत और अनागत की बिलकुल सत्ता नहीं है। केवल वर्तमान में ही वस्तु का अर्थक्रियाकारित्व लक्षण घटित होता है, अत: केवल वर्तमान की ही सत्ता मान्य है। हेतुप्रत्ययसामग्री की अनुपस्थिति या असमग्रता से जो वस्तु के उत्पाद का अभाव है, वही उसका अनागत होना है तथा वर्तमान सत्ता का निरोध या सजातीय सन्तति का उच्छेद उसका अतीत होना है। हेतु-प्रत्ययों की परस्परापेक्ष या हेतु-प्रत्यय सामग्री की समवधानता से वस्तु का जो आत्मलाभ है, वह प्रत्युत्पन्न या वर्तमान होना कहलाता है। उसी में अर्थक्रियाकारित्व है। अत: उसी की वस्तुसत्ता है। अतीत और अनागत की मात्र प्रज्ञप्तिसत्ता है।
स्कन्ध, आयतन धातु के अन्तर्गत गृहीत कुछ धर्म ऐसे भी होते हैं, जिनकी प्रज्ञप्तिसत्ता होने पर भी उनमें अर्थक्रियाकारित्व होता है, अत: सौत्रान्तिक उनकी वस्तुसत्ता मानते है; यथा—चित्तविप्रयुक्त संस्कार, सन्तति, अनित्यता आदि। यद्यपि इनकी स्वतन्त्र द्रव्यसत्ता नहीं है, फिर भी उनमें अर्थक्रियाकारित्व है। अतीत
और अनागत में अर्थक्रियाकारित्व का भी अभाव है। अत: उनमें न केवल द्रव्यसत्ता का ही अभाव है, अपितु वस्तुत्व का भी अभाव है। उनका आकार कल्पना द्वारा नितान्त आरोपित मात्र है। इस कारण वे अभावमात्र या प्रज्ञप्ति मात्र हैं। विप्रतिपत्तिनिरास
ज्ञात है कि वैभाषिक दार्शनिक तीनों कालों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। फलतः वे सौत्रान्तिकों पर अनेक प्रकार के आक्षेप करते हैं। सौत्रान्तिक उन आक्षेपों का अपनी दृष्टि से परिहार करते हैं। इन दोनों प्रस्थानों के ये आक्षेप परिहार दिलचस्प हो सकते हैं, अत: उनका यहाँ संक्षेप में निरूपण किया जा रहा है। १. वैभाषिक
अतीत और अनागत का अस्तित्व है, इसीलिए श्रुतवान् आर्यश्रावक अतीत रूप आदि के प्रति निरपेक्ष होता है। अनागत रूप आदि का अभिनन्दन नहीं करता तथा प्रत्युत्पन्न रूप आदि के निरोध के लिए प्रतिपन्न होता है। यदि ऐसा न होगा तो वैराग्य का अभ्यास सम्भव न हो सकेगा। अपनी इस बात के समर्थन में वे बुद्धवचन प्रस्तुत करते हैं, तथा हि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org