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श्रमणविद्या- ३
उनकी शिक्षा को उन्होनें समस्त बुराईयों, जिनका कि एक सांसारिक मनुष्य को सामना करना पड़ता है, उपचार के रूप में अपनाया । ललित विस्तर में संसार प्राणियों के लिए बुद्ध की शिक्षा का गुरुत्व समझाने के लिए उन्हें वैद्यों के राजा के रूप में सम्बोधित किया है
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चिरातुरे जीवलोके क्लेश-व्याधि प्रपीडिते । वैद्यराट् त्वं समुत्पन्नः सर्वव्याधि प्रमोचकः ।।
"कामनाओं से रोगग्रस्त दीर्घसमय से अस्वस्थ और दुःखावेग से पीडित इस विश्व में तुम वैद्य प्रवर अवतरित हुए हो, सर्व रोगों के निराकरण के लिए "
पर वे पीड़ाएँ और व्याधियाँ क्या थी जिन्हे बुद्ध वैद्य के रूप में दूर कर सकते हैं, और किन औषधियों से ? बुद्ध के जन्म के समय को आत्मिक एषण के युग के रूप से जाना जाता है और हमें याद रखना है कि गौतम ने सर्व दुःख पीड़ाओं की जड़ को खोज निकालने की प्रेरणा से घर छोड़ा था दुःख की उस जड़ को जो मानव को क्लेश पहुँचाती है और ज्ञानान्वेषी के रूप में उनका यह काम था - पीड़ित और जर्जरित मानवता को ऐसे पथ को खोज देना जो उन्हें दुःख-दर्द से छुटकारा देगी। उन्होनें चार आर्य सत्यों की खोज की और दर्शाया कि अज्ञान ही सब मानवीय दुःखों की जड़ है। पाप दुःख और पीड़ा से भरे नश्वर इस संसार में वे लगभग चालीस साल तक घूमते रहे और सत्य, प्रेम एवं अहिंसा का संदेश सुनाते रहे। निस्सन्देह ही उनकी शिक्षा सही अर्थ में धार्मिक है, परन्तु साथ ही साथ वह नैतिक दार्शनिक और विश्वजनीन है। उन्होनें उन अशुद्ध मानसिक स्थितियों और आवेगों का विश्लेषण किया जो कि हमारे मन को सताते हैं और हमारे लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं कि हम अस्तित्व के भँवर में फँसकर जन्म के आवर्त में घूमते रहते हैं और परिणामस्वरूप संसार के दुःख में पड़ जाते है। हम सर्वदा अनेक आशाओं और अनेक अपूर्ण मनोवांछाओं को लेकर तनावपूर्ण स्थिति में जीते हैं। इस तनाव को और रोग को दूर करने का उत्तम उपाय है आत्माभिमान का त्याग और मन की शुद्धि । उन्होनें चाहा कि मानव पहले अन्तस्नान द्वारा अन्तर की शुद्धि करे - 'सिनातो अन्तरेन सिनानेन' न कि पवित्र जल के स्पर्श से बाकि शुचिता । उन्होनें नेतिवाचक दुःख से दूर भागने की बात नहीं कही है, बल्कि उन्होनें चाहा कि अस्तिवाचक अच्छाई का पालन हो और अभ्यन्तर की शुद्धि हो
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