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श्रमणविद्या-३
शील एवं समाधि आदि गुणों का प्रधान कारण क्षान्ति सहिष्णुता है। क्षान्ति के विकास के साथ सभी कुशल धर्मों का संवर्धन होता है।
शान्ति सहिष्णुता प्रज्ञावानों का विभूषण है, यतियों की तृष्णा को जलाने वाली आग है, वैखानसों (एकान्तवासियों) की घनात्मक शक्ति है। क्षान्ति सहिष्णुता तितिक्षा तथा विप्रसन्नता चतुरस्र सफलता से भर देती है।
उपर्युक्त वर्णित सभी गुणों का मूलकारण क्षान्ति है, अत: यह उत्तम मङ्गल है। २. सोवचस्सता
(साधुवचनकरणता) सुन्दर एवं प्रासादिक वचन बोलने के लिए प्रेरित करती है। सोवचस्सता शब्द का निर्वचन करते हुए परमत्थजोतिका में कहा गया है—१. प.जो.पृ. १९५ जो सहधार्मिक के कहने पर विना विक्षेप एवं तुष्णीभाव के और गणदोष का चिन्तन किए बिना आत्यधिकआदर और गौरव के साथ, मन की विनम्रता के साथ जो साधुवचनकरणता है, उसे सोवचस्सता कहते हैं। यह उत्तम मङ्गल है क्योंकि यह आध्यात्मिक जीवन में संज्ञापन, (अववाद) अनुशासन की प्राप्ति के लिए है और दोषों के निराकरण तथा गुणाधिगम का कारण है। __ये न काहन्ति ओवादं नरा बुद्धेन देसितं
व्यसनं ते गमिस्सन्ति रक्खसीव वाणिजा । ये च काहन्ति ओवादं नरा बुद्धेन देसितं सोत्थिं परं गमिस्सन्ति बलाहेते व वाणिजा ।।
(जातक, वलाहक जातक) जो भगवान् के द्वारा उपदिष्ट धर्म देशना का निरादर करते हैं, नहीं चाहते हैं वे उसी तरह विनष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार राक्षसी के द्वारा खाये जाने पर वणिक विनष्ट हो गए।
किन्तु जो बुद्ध की देशना का समादर कर सुनते हैं, उसे चाहते हैं, वे परम स्वस्ति अर्थात् कल्याण को प्राप्त करते हैं जिस प्रकार पक्षी-अश्व के द्वारा रक्षित हो वणिक् ने कल्याण प्राप्त किया।
इस प्रकार सोवचस्सता परम कल्याणकारी होने से उत्तम मंगल है।
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