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प्रस्तावना
डॉ. ब्रह्मदेव नारायण शर्मा द्वारा सम्पादित 'श्रमणविद्या' संकाय पत्रिका के तृतीय भाग की प्रस्तावना लिखते हुए मुझे अत्यन्त हर्षानुभूति हो रही है । प्रो. शर्मा जी ने 'श्रमणविद्या के इस तृतीय भाग का सम्पादन बड़ी तल्लीनता से किया है। जैसा कि उन्होंने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि विगत कई वर्षों से यह पत्रिका प्रकाशित नहीं होती रही है। फलस्वरूप शोधार्थियों को इस पत्रिका के अनेक अङ्क अप्राप्य रहे हैं, जिनसे शोध - जगत् की अनेक महत्त्वपूर्ण समस्याओं का समाधान हो सकता था । अस्तु ।
मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि परम्पराएँ ही इतिहास के रूप में परिणत होती हैं। परम्पराओं का पुङ्खानुपुङ्ख भाव से अनुशीलन ही इतिहास का उन्मीलन माना जाता है। प्रो. ब्रह्मदेव नारायण शर्मा हमारे विशेषरूप से साधुवाद के अधिकारी हैं, जिन्होंने परम्पराओं के टूटे हुए सेतु को सम्पृक्त करने का श्लाघनीय कार्य किया है। ऐसे ही कार्यों को ध्यान में रखते हुए महाकवि कालिदास ने लिखा है कि- "ततान सोपानपरम्परामिव" ।
'श्रमणविद्या' संकाय पत्रिका का यह तृतीय पुष्प - स्तबक पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होकर विद्वानों के करकमलों में प्रस्तुत है, जिसके सुवास से चतुर्दिक् सुवासित हो सकेगा। महाकवि श्रीहर्ष ने अपने नैषधीय महाकाव्य में लिखा है कि जिस प्रकार वृक्ष बाल - पल्लव, पुष्प तथा फलयुक्त मञ्जरी का प्रस्फुटन करता हुआ दिग्दिगन्त को सुवासित करता है, उसी प्रकार नाना विद्याओं के नवपल्लव, पुष्प तथा फलयुक्त मंजरियाँ ग्रन्थ के आकार में परिणत होकर अपने सुवास से मानव - चेतना की अतल गहराइयों को भी सुवासित एवं प्रस्फुटित कर देती हैं। यथा
अनर्घ्यरत्नौघमयेन मण्डितो रराज राजा मुकुटेन मूर्धनि । वनीपकानां स हि कल्पभूरुहस्ततो विमुञ्चन्निव मञ्जुमञ्जरीम् ।।
(नै.च. १५/६०)
'श्रमणविद्या' संकाय - पत्रिका का यह तृतीय स्तबक उस मणि-काञ्चन संयोग का निर्माण कर रहा है, जिसकी चर्चा किये विना नहीं रहा जा सकता।
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