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बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा
दान के संदर्भ में दानपारमिता का उल्लेख मिलता है। भगवान बुद्ध ने कहा है कि दान के समान मेरे लिए कुछ नहीं है— 'न मे दानसमो अस्थि' । जैसे जिस प्रकार जल से भरा घट नीचे करने पर सम्पूर्ण जल को वमन कर देता है, उसी प्रकार हीन मध्यम तथा उत्कृष्ट याचकों को देखकर अधोकृत कुम्भ के समान निश्शेष दान दो
यथापि कुम्भो सम्पुणो यस्स कस्सचिअधोकतो |
वमते उदकं निस्सेसं न ते तत्थ परिरक्खति । तथेव याचके दिस्वा हीनमुक्कट्ठमज्झिमे ।
ददाहि दानं निस्सेसं कुम्भो विय अधोकतो ।। (अट्ठसलिनी, पृ. २३-२४)
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दान पारमिता से यह सिद्ध होता है कि दान से मनुष्य इस पार से उस पार चला जाता है अर्थात् भवप्रपञ्च से मुक्त होकर प्रपञ्चोपशम निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
(५) सदाचरण अर्थात धर्मचर्या (धम्मचरिया) को भगवान बुद्ध ने उत्तम मङ्गल कहा है। 'धम्मचरिया' दो संघटक अवयवों के योग से निष्पन्न है— धम्म तथा चरिया, जिसका अर्थ है- धर्मपरायण आचरण । दस कुशल कर्म पथ को धर्मचर्या की संज्ञा दी जा सकती है। दस कुशल कर्मपथों में तीन काय सुचरित हैं, जिनमें अहिंसा, अदत्तादानविरति तथा काममिथ्याचारविरति का उल्लेख किया गया है। वाक् सुचरित चार हैं जिनमें सत्यवचन, अपिशुनवचन, अपरूषवचन तथा असम्भिन्नप्रलाप का उल्लेख किया गया है। मनः सुचरित में अनभिध्या, अ द्वेष और अविहिंसा परिगणित हैं। इस प्रकार कायसुचरित, वाक् सुचरित तथा मनः सुचरित को धर्मचर्या कहते हैं । धर्मिक आचरण अर्थात् धर्मचर्या से इहलोक तथा परलोक में अपरिमित सुख और आनन्द की प्राप्ति होती है, अत: यह उत्तम मङ्गल है। धर्मपरायण आचरण स्वर्गिक संसार में पुनर्जन्म का कारण है।
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(६) जातिसङ्गह अर्थात कुटिम्बियों ज्ञातियों एवं परिवारों को सहयोग प्रदान करना भी उत्तम मङ्गल है । ज्ञाति उसे कहते हैं जो मातृ-पितृ पक्ष की सातपीढ़ियो से सम्बद्ध हैं । सम्बन्धियों को सहयोग प्रदान करने की दो पद्धतियाँ है — भौतिक सहयोग तथा धार्मिक सहयोग । भौतिक सहयोग में अन्न, वसन, शयनासन, निवास तथा धन का सहयोग वाञ्छित है । धर्म सहयोग में धर्मोपदेश
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