________________
२३
बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा को सुरक्षित रखते हैं। मृतप्रेतों के निमित्त श्राद्धदान देते हैं (दी. नि. सिगालोवादसुत्त)
दारा (भरिया) बीस प्रकार की कही गयी है—(१) मातृरक्षिता (२) सारक्षा (३) पितृरक्षिता (४) मात-पितृरक्षिता (५) भ्रातृरक्षिता (६) भगिनीरक्षिता (७) ज्ञातिरक्षिता (८) गोत्ररक्षिता (९) धर्मरक्षिता (१०) सपरिदण्डा (११) धनक्रीता (१२) छन्दवासिनी (१३) भोगवासिनी (१४) उदकपात्री (१५) पटवासिनी (१६) अवभृतचुम्बटा (१७) ध्वजाहता (१८) कर्मकारी (१९) दासीभार्या (२०) गोत्ररक्षिता।
अन्यत्र सात प्रकार की पत्नियों का भी निरूपण किया गया है(१) वधिकापत्नी (२) चोरापत्नी (३) आर्या - पत्नी (४) माता-पत्नी (५) भगिनी-पत्नी (६) सखा-पत्नी तथा (७) दासी-पत्नी। इनमें से जो मातापत्नी, भगिनी-पत्नी तथा दासी- पत्नी हैं वे मरने के बाद सुगति को प्राप्त होती हैं तथा जो वधिका-पत्नी, चोरा-पत्नी, आर्या-भार्या, दुश्शीलरूपा, परुषा तथा अनादरा हैं, वे मरने के बाद दुर्गति को प्राप्त होती हैं (अं.नि. अव्याकतवग्ग)।
भार्या को पश्चिम दिशा की संज्ञा दी गयी है, अत: स्वामी को सम्मान से, अनादर न करने से, अतिचार अर्थात् परदारा गमन न करने से, ऐश्वर्य प्रदान से, अलंकार आभूषण, वस्त्राभरण प्रदान से भार्या रूपी पश्चिम दिशा का उपस्थान होने से वह स्वामी पर पाँच प्रकार से अनुकम्पा करती है- (१) वह ठीक ढंग से गृहकार्यों का सम्पादन करती है, (२) परिजनों दासकर्मियों को वश में रखती है (३) स्वयं अतिचार नहीं करती हैं। (४) अर्जित द्रव्यादि की रक्षा करती है सब कार्यों में दक्ष तथा निरालस्य रहती है। (दी. नि. सिगालोवाद सुत्त)
इस प्रकार पुत्रदारसंग्रह उत्तम मंगल है। शक्र ने मातलि से कहा है कि जो पुण्यकारी, शीलवान् गृहस्थ उपासक धर्म के द्वारा नियमपूर्वक दारा का सम्पोषण करते हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ
ये गहट्ठा पुञकरा सीलवन्तो उपासको ।
धम्मेन दारं पोसेन्ति तं नमस्सामि मातलि ।। (सं. नि. सक्कसुत्त) (३) अनाकुल कर्मान्त को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मङ्गल कहा हैं। कृषिकर्म, गोरक्षा तथा वाणिज्य पर मनुष्यों की अजीविका निर्भर करती है। अनेक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org