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श्रमणविद्या-३
तायं न परिचरियाय मातापितुसु पण्डिता । इध चेव नं पसंसन्ति पेच्च सग्गे च मोदति ।।
(सोनन्द जातक ९।९३) सिगालावाद सुत्त के अनुसार पाँच प्रकार से माता-पिता की सेवा (प्रत्युपस्थान) करनी चाहिए-१. इन्होंने मेरा भरण-पोषण किया है, अत: मुझे उनका भरण पोषण करना चाहिए। २. इन्होंने मेरा कार्य किया है अत: मुझे इनका कार्य करना चाहिए ३. इन्होंने कुल-वंश को कायम रखा है अत: कुलवंश को कायम रखना चाहिए। ४. इन्होंने मुझे दायाद (दायज्ज) विरासत दिया है। अत: मुझे दायाद प्रतिपादन करना चाहिए। मृत पितरों के निमित्त श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिए। इस प्रकार पाँच तरह से सेवित माता पिता पुत्र पर पाँच प्रकार से अनुकम्पा करते है। (क) पाप कर्मों से निवारित करते हैं (ख) पुण्यकर्मों में नियोजित करते हैं। (ग) शिल्प सिखलाते हैं। (घ) योग्य स्त्री से विवाहसम्बन्ध स्थापित कराते हैं। (त) समय पाकर दायज्ज का निष्पादन करते हैं। इस पाँच बातों से पुत्र की पूर्वदिशा प्रतिच्छन्न, क्षेमयुक्त एवं भयरहित होती है। सिंगालोवाद सुत्त, (दी. नि३।२।)
सचमुच पाँच वस्तुओं को देखकर माता-पिता पुत्र की कामना करते है। वह भरण-पोषण करेगा, करणीयकर्मों का सम्पादन करेगा, वह कुलवंश को प्रतिष्ठित करेगा, वह दायाद को सुरक्षित रखेगा और मरणोपरान्त प्रेतों को उपायन भेंट करेगा इन पाँच बातों को देखकर पण्डित पुत्र की कामना करते है। पूर्वकृत कार्यों का अनुस्मरण कर कृतज्ञ एवं कतवेदी पुत्र अपने माता-पिता की सेवा करते है, विप्रसन्न हो भरण-पोषण करते है, वे आज्ञाकारी भृतपोषी तथा कुलवंश के रक्षक होते हैं। श्रद्धावान् एवं शीलसम्पन्न पुत्र प्रशंसनीय होते हैं
पञ्चट्ठानानि सम्पस्सं पुत्तं इच्छन्ति पण्डिता । भतो वा नो भरिस्सति किच्चं वा नो करिस्सति ।। कुलवंसो चिरं तिढे दायज्जं पटिपज्जति अथवा पन पेतानं दक्खिणंनुपदस्सति । ठानञ्चतानि सम्पस्सं पुत्तं इच्छन्ति पण्डिता ।।
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