________________
काशी और जैन श्रमणपरम्परा
उक्त घटना ब्रह्मनेमिदत्त के आराधना कोश में है। घटना से यह ध्वनित होता है कि द्वितीय शताब्दी में काशी में शिवालयों का बाहुल्य था और नएनए शिवालयों का निर्माण हो रहा था। शैव मत का प्रचार-प्रसार था फिर भी अन्य धर्मों के साथ सहिष्णुता का भाव भी विद्यमान था । यदि ऐसा न होता तो धर्मान्धता के कारण समन्तभद्र को राजा कड़ी सजा दे सकता था। दूसरी बात यह सिद्ध होती है । कि वह युग शास्त्रार्थ युग था । सम्भव है उक्त घटना का सम्बन्ध शास्त्रार्थ जय-पराजय से जुड़ा हो और परम्परानुसार उसे चमत्कारिक स्वरूप दे दिया गया हो, जो अनन्तरकाल में श्रद्धा के रूप में स्वीकार की जाने लगी हो क्योंकि आचार्य समन्दभद्र के विषय में निम्न श्लोक मिलता है। जो उनकी वाग्विदग्धता पर प्रकाश डालता हैं ।
"काच्या नग्ननाटकोऽहं मलमलिनतनुलम्बिटो पाण्डुपिण्डः पुण्ड्रेण्डे शाक्यभिक्षुदर्शपुरनगरे मिष्टभोजी परिवाद् ।। वाराणस्यामवभूवं शशकरधवलः पाण्डुराङ्गस्तपस्वी ।
राजन् यस्यास्ति शक्तिः सवदतु पुरतो जैन निर्ग्रन्थवादी ।।
अर्थात् मैं काञ्ची में नग्नदिगम्बर यति के रूप में रहा, शरीर में रोग होने पर पुण्ड्रनगरी में बौद्धभिक्षु बनकर निवास किया, दशपुर नगर में मिष्ठान्नभोगी परिव्राजक बनकर रहा । अनन्तर वाराणसी में आकर शैव तपस्वी बना। हे राजन्! मैं जैन निर्ग्रन्थवादी - स्याद्वादी हूँ । यहाँ जिसकी शक्ति वाद करने की हो वह मेरे सम्मुख आकर वाद करे ।
पुरातत्व एवं जैन श्रमणपरम्परा
भारत कला भवन, का. हि. वि. वि. में पुरातत्व सम्बन्धी बहुमूल्य सामग्री सुरक्षित हैं, जो राजघाट एवं अन्य स्थानों से खुदाई से प्राप्त हुई हैं। उनमें पाषाण और धातु की अनेक जैन प्रतिमायें हैं, जिन्हें पुरातत्वविद् कुषाण काल से मध्यकाल तक की मानते हैं।
२२१
उक्त पुरातात्त्विक सामग्रियों में कुषाणकालीन सप्त फणावलि युक्त तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का शीर्षभाग है, जो उत्खनन में प्राप्त हुआ था । राजघाट के उत्खनन से प्राप्त सप्त फणावलि एक तीर्थङ्कर प्रतिमा हैं, उस फणावलि के दो फण खण्डित हो गए हैं। सिर के अगल-बगल दो गज बने हुए हैं। उनके ऊपर देवेन्द्र हाथों में कलश धारण किए हुए है। फणावली के ऊपर भेरी ताड़न करता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org