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शौरसेनी प्राकृत साहित्य के आचार्य एवं उनका योगदान
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नाटकों में शौरसेनी भाषा का अच्छा व्यवहार हुआ है। कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाटक में शौरसेनी, महाराष्ट्री और मागधी का व्यवहार पाया जाता है। शूद्रक ने भी मृच्छकटिकम् नाटक में इस भाषा का प्रयोग यत्र-तत्र किया है।
इनके अतिरिक्त राजशेखर (१०वीं शदी) कृत कर्पूरमंजरी, नयचन्द्रसूरि (१४ वीं सदी) कृत रम्भामंजरी, महाकवि रुद्रदास (१७वीं सदी) कृत चन्द्रलेखा सट्टक, कवि घनश्याम (१८वीं सदी) कृत आणंदसुंदरी कहा, कवि विश्वेश्वर (१८वीं सदी) कृत श्रृंगार-मंजरी तथा तेरहवीं सदी के जैन नाटककार महाकवि हस्तिमल्ल कृत विक्रान्त कौरवम्, सुभद्रा नाटिका, अंजना-पवनंजय नाटक तथा मैथिलीकल्याण नाटक-इन संस्कृत नाटकों में विभिन्न प्राकृतों के साथ ही शौरसेनी प्राकृत का विशेष प्रयोग पाया जाता है। इस तरह शौरसेनी के विकास में नाट्य साहित्य का योगदान उल्लेखनीय है।
इस प्रकार शौरसेनी प्राकृत भाषा के आचार्यों ने अपनी अनुपम कृतियों के माध्यम से भारतीय साहित्य की श्रीवृद्धि में अनुपम योगदान किया है। जिसका अनेक दष्टियों से यथोचित मूल्याकंन, अध्ययन और अनुसंधान वर्तमान सन्दर्भो में अति आवश्यक है। आशा है इस बहुमूल्य अवदान के संरक्षण और विकास हेतु विद्वान् अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह अपना कार्य समझकर करेंगे।
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