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शौरसेनी प्राकृत साहित्य के आचार्य एवं उनका योगदान
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दक्षिण भारत में बेट्टकेरी स्थान के निवासी 'वट्टकेर' दिगम्बर परम्परा में मूलसंघ के प्रमुख आचार्य थे। इन्होंने मुनिमार्ग की प्रतिष्ठित परम्परा दीर्घकाल तक यशस्वी और उत्कृष्ट रूप में चलते रहने और मुनिदीक्षा धारण के मूल उद्देश्य की प्राप्ति हेतु 'मूलाचार' ग्रन्थ की रचना की, जिसमें श्रमण-निर्ग्रन्थों की आचारसंहिता का सुव्यवस्थित, विस्तृत एवं सांगोपांग विवेचन किया गया है।
मूलाचार तथा कुन्दकुन्द साहित्य की कुछ गाथायें समान मिलने और मूलाचार की वसुनन्दिकृत आचारवृत्ति की कुछ पाण्डुलिपियों में आ. कुन्दकुन्द का नामोल्लेख होने के आधार पर मूलाचार को भी कुछ विद्वानों ने आचार्य कुन्दकुन्द की कृति सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, किन्तु इन दोनों में अनेकों असमानता के कारण ऐसा है नहीं। आचार्य कुन्दकुन्द वृत्तिकार तथा ऐलाचार्य के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। इन आधारों पर भी वट्टकेर और कुन्दकुन्द को कुछ विद्वानों ने एक ही आचार्य सिद्ध करने का प्रयास किया है, किन्तु यह भी खींचतान ही है। अत: मूलाचार को आ. कुन्दकुन्द कृत नहीं माना जा सकता है।
दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के कुछ ग्रन्थों की गाथाओं से मूलाचार की कुछ गाथाओं की समानता के आधार पर कुछ विद्वान् इसे संग्रहग्रंथ भी कह देते हैं, किन्तु यह तथ्य है कि तीर्थंकर महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा जब दो भागों में विभक्त हुई, उस समय समागत श्रुत दोनों परम्पराओं के आचार्यों को कंठस्थ था। अत: उन दोनों ने समान रूप से उसका उपयोग प्रसंगानुसार अपनी-अपनी रचनाओं में किया, इसीलिए कुछ समानताओं के आधार पर ही किसी मौलिक ग्रन्थ को संग्रहग्रंथ कह देना, उस सम्पूर्ण विरासत के साथ अन्याय ही कहा जाएगा।
। वस्तुत: समान गाथाओं वाले कुछ ग्रन्थ तो हमें उस परम्परा के प्राचीनतम उन स्रोतों को खोजने का अवसर प्रदान करते हैं, जो तीर्थंकर महावीर की साधना और उनके श्रमणसंघ की आचार संहिता से ही सीधे जुड़ थे। क्योंकि अर्धमागधी आगमों में श्रमणाचार के जिन नियमों और उपनियमों को निबद्ध किया गया है तथा मूलाचार में श्रमण की जो अचार संहिता निबद्ध है, उसकी तात्त्विक और आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा में कोई विशेष अन्तर प्रतीत नहीं होता। अहिंसा के जिस मूल धरातल पर श्रमणाचार का महाप्रासाद अर्धमागधी आगम में निर्मित है, उसी अहिंसा के मूल धरातल पर मूलाचार में भी श्रमणाचार का विशाल भवन निर्मित है। इस दृष्टि से मूलाचार को भी आचारांग के आधार पर ही निर्मित माना गया है। मूलाचार के टीकाकार आ. वसुनन्दि,
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