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श्रमणविद्या- ३
का जो वर्णन किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने इन ग्रन्थों में आध्यात्मिक सुख की धारा रूप से अपूर्व मन्दाकिनी प्रवाहित की है, मुमुक्ष उसमें अवगाहन कर शाश्वत शान्ति की प्राप्ति के योग्य बनते हैं। तभी तो पुरानी हिन्दी के जैन महाकवि पं.वृन्दावनदास ने मधुर छन्दों में आचार्य कुन्दकुन्द के विषय में कहा है कि
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जासके मुखारविन्दतैं प्रकाश भासवृन्द,
स्याद्वाद जैन वैन इंद कुन्दकुन्द से I तास अभ्यास विकास भेद ज्ञान होत,
मूढ सो लखै नहीं कुबुद्धि कुन्दकुन्द से । देत हैं अशीस शीस नाय इन्द चंद जाहि,
मोहि मार खंड मारतण्ड कुन्दकुन्द से । विशुद्धि बुद्धि वृद्धिदा, प्रसिद्ध ऋद्धि सिद्धिदा,
हुए, न हैं, न होहिगे मुनिंद कुन्दकुन्द से ।।
आचार्य कुन्दकुन्द निश्चयनय एवं आध्यात्म - प्रधान होकर भी व्यवहार के विरोधी नहीं थे। जिनदेव, जिनागम आदि के प्रति बारम्बार अपार भक्तिपूर्वक वंदना आदि पुण्यवर्धक क्रियायें भी उनकी कृतियों के प्रारम्भिक मंगलाचरणों से स्पष्ट ही हैं । जहाँ उन्होंने राग- द्वेष एवं कर्मफल से अनिर्लिप्त शुद्ध आत्मा के स्वरूप के अतिरिक्त अन्य पुद्गल आदि द्रव्यों की भी प्ररूपणा की, वहीं संसारचक्र के दुःख से पीड़ित जीवों को मुक्त कराने वाली लोककल्याण की भावना से प्रेरित होकर ग्रन्थों का भी प्रणयन किया। जहाँ प्रवचनसार में उन्होंने श्रमणाचार का भी सुव्यवस्थित प्रतिपादन किया, वहीं चारित्रपाहुड में सागार (श्रावक) के दार्शनिक प्रतिमा आदि ग्यारह स्थानों (प्रतिमाओं) का निर्देश करते हुए बारह भेद-स्वरूप संयमाचरण का अर्थात् श्रावक के व्रतों का भी निरूपण किया है। वस्तुतः मुक्ति प्राप्ति जीव का ही लक्ष्य है और बाह्य व्रत - संयम आदि का प्रतिपादन उसी पूर्त के लिए ही है।
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इस तरह साहित्य के क्षेत्र में आ. कुन्दकुन्द की अलौकिक विद्वत्ता, शास्त्रग्रथन की प्रतिभा एवं सिद्धान्त ग्रन्थों के सार को आध्यात्मिक और द्रव्यानुयोग के रूप में प्रस्तुत करने का अपना अलग ही वैशिष्ट्य है। तीर्थंकर
१. चारित पाहुड गाथा २१-३७.
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