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श्रमणविद्या-३
वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोपमं गई पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवली भणियं ।। समयसार१।१।।
साहित्य और शिलोलेखों में इनके अनेक नामों का उल्लेख मिलता है। जिनमें कौण्डकुन्द (कुन्दकुन्द), पद्मनन्दि, वक्रग्रीव, एलाचार्य, महामुनि, गृद्धपिच्छ ये इनके प्रमुख नाम हैं।
___ अनेक ग्रन्थों और शिलालेखों में आ. कन्दकन्द के विदेहगमन और चारणऋद्धि सम्बन्धी उल्लेख मिलते हैं। यद्यपि आज के कुछ विद्वानों ने विदेहगमन और वहाँ सीमंधर स्वामी के समवशरण में पहुँचकर दिव्यध्वनि श्रवण की इस घटनाको सही नहीं माना है। किन्तु सदियों प्राचीन उल्लेखों को नजरअन्दाज भी कैसे किया जा सकता हैं?
आचार्य कन्दकन्द का व्यक्तित्व और कर्तृत्व इतना अनुपम था कि दिगम्बर जैन परम्परा के प्राय: सभी संघों ने अपने को कुन्दकुन्दान्वय का मानने में गौरवशाली अनुभव किया। यही कारण है कि मूलसंघ के अनेक भेद-प्रभेद हो जाने अथवा स्वतन्त्र अन्यान्य संघ बन जाने के बावजूद सभी संघ आचार्य कुन्दकुन्द या कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा का अपने को सच्चा अनुयायी मानते हुए भावनात्मक एकता, जैन शासन की अभ्युन्नति एवं आत्मकल्याणके लक्ष्य में एकजुट होकर संलग्न रहे और सभी आज भी हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द और उनके अन्वय की गौरवशाली परम्परा दो हजार वर्षों से अबतक निरन्तर चली आ रही है। तथा कुन्दकुन्दान्वय के रूप में जिसका उल्लेख आज भी सभी प्रतिष्ठित पूज्य मूर्तियों के मूर्तिलेखों में अनिवार्यत: प्रचलित है। जिनके परिपेक्ष्य में हम उनके महान् व्यक्तित्व और कर्तृत्व के साथ ही भारतीय मनीषा को उनके अनुपम योगदान की परख कर सकते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा और उनका साहित्यः
आचार्य कुन्दकुन्द की कृतियों में तात्त्विक, आध्यात्मिक और आचार जैसे दुरूह विषयों के प्रतिपादन में भावों और भाषा की प्रौढ़ता तथा प्रसन्न, सरल एवं गम्भीर शैली का जो स्वरूप दिखलाई पड़ता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इन्होंने भारतीय आर्यभाषा के प्राचीन स्वरूप को ध्यान में रखकर तत्कालीन बोलचालकी लोकभाषा (जनभाषा) के रूप में लोकप्रिय शौरसेनी प्राकृत भाषा को माध्यम बनाकर विशाल साहित्य का सृजन किया। कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने
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