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शौरसेनी प्राकृत साहित्य के प्रमुख आचार्य
और उनका योगदान डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी
उपाचार्य एवं अध्यक्ष,
___जैनदर्शन विभाग
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी वर्तमान में जैन श्रमण-परम्परा मुख्य रूप से दिगम्बर और श्वेताम्बरइन दो सम्प्रदायों में विभक्त है। दोनों ही परम्पराओं का प्राकृत भाषा में निबद्ध प्राचीन साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है। ये दोनों ही परम्परायें यह मानती हैं कि तीर्थंकर महावीर के बाद द्वादशांग रूप आगमज्ञान दीर्घकाल तक गुरुशिष्य परम्परा द्वारा मौखिक रूप से चला आया, किन्तु कालक्रम से क्षयोपशम कम हो जाने से वह ज्ञान पूर्णरूप से सुरक्षित नहीं रह सका। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार आगमज्ञान का क्रमश: उच्छेद होता गया और उसमें मात्र आंशिक आगमज्ञान (बारहवें अंग दृष्टिवाद का कुछ अंश) ही आचार्य परम्परा से सुरक्षित रह पाया, जो आचार्य गुणधर और आचार्य धरसेन तथा पुष्पदन्तभूतबलि के माध्यम से क्रमश: कसायपाहुड तथा छक्खंडागम (षट्खण्डागम) एवं इनका टीकाओं के माध्यम से उपलब्ध हुआ।
श्वेताम्बर जैन परम्परा के अनुसार द्वादशांग के संकलन के लिए पाटलीपुत्र, मथुरा और वलभी में वाचनायें हुईं और अन्ततः वीर निर्वाण के लगभग ९८० वर्ष बाद (ई०सन् ४५३) में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में वलभी में उपस्थित श्रमणसंघ ने अपनी-अपनी स्मृति के आधार पर आगमों को पुस्तकारूढ़ किया। वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी आगम साहित्य इसी वाचना की देन है। यद्यपि वर्तमान में प्राकृत भाषा की दृष्टि से भी दोनों परम्पराओं की और उसके आगम साहित्य की भी अलग-अलग पहचान सी बन गई है। अत: जब हम व्यवहार में 'शौरसेनी आगम परम्परा' कहते हैं, तब इसका सीधा उद्देश्य दिगम्बर जैन परम्परा को सन्दर्भित करने का होता है। इसी * बैंगलोर (कर्नाटक) में दि. ८ एवं ९ दिसम्बर १९९० तक आयोजित प्रथम राष्ट्रीय प्राकृत
सम्मेलन में प्रस्तुत।
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