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जैनश्रमण परम्परा और अनेकान्त दर्शन
१६३ रूप ही मानव जीवन के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। संस्कृति जब आचारोन्मुख होती है तब उसे धर्म कहा जाता है और जब वह विचारोन्मुख होती है तब उसे दर्शन कहा जाता है। संस्कृति का बाह्य रूप एवं क्रियाकाण्ड धर्म है और संस्कृति की आन्तरिक रेखा अथवा चिन्तन दर्शन की संज्ञा को प्राप्त करता है। संस्कृति का अर्थ है संस्कार। संस्कार चेतन का ही हो सकता है, जड़ का नहीं। इस सन्दर्भ में संस्कृति का सम्बन्ध चेतन से ही है, अचेतन से नहीं। जब प्रकृति में विकार आ जाता है तब उसके सुधार के लिए जो प्रयत्न किया जाता है वही संस्कार अथवा संस्कृति है ।
जैन परम्परा की प्राचीनता के उल्लेख साहित्य में तो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं ही। पुरातात्विक सन्दर्भो में श्रमण तीर्थंकरों की मूर्तियाँ तथा अभिलेख इसकी प्राचीनता के जीवन्त प्रमाण हैं। जैन संस्कृति के आधारभूत सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए आ. समन्तभद्र ने लिखा है
दया दम त्यागसमाधिनिष्ठं नय प्रमाण प्रकृताञ्ज सार्थम् ।
अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैर्जिनं त्वदीयं मतमद्वितीयम् ।।।
अर्थात् हे भगवन्! आपका मत (सिद्धान्त) अद्वितीय है, क्योंकि वह जीवदया से परिपूर्ण है, दम (आत्म नियन्त्रण) और त्याग की गरिमा से मण्डित होता हुआ समाधि (सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रमयी) धर्मनिष्ठ है तथा नयों
और प्रमाणों द्वारा अनेकान्तात्मक यथार्थ वस्तु स्वरूप का प्रतिपादक होकर सत्य ज्ञान की ठोस नींव पर प्रतिष्ठित है एवं समस्त दोषों से रहित (निष्कलंक) है। इस प्रकार वह सचमुच ही अद्वितीय है।
अहिंसा जैनधर्म का मूलाधार है। जैन तीर्थंकारों ने मनसा, वाचा, कर्मणा सभी क्षेत्रों में समता की प्रतिष्ठापना का उपदेश दिया इसी कारण आचार की समता अहिंसा में, विचारों की समता अनेकान्त में, वाणी की समता स्याद्वाद और समाज की समता अपरिग्रह में सन्निहित है। समदृष्टि बनने के लिए वस्तु स्वरूप का यथार्थज्ञान (तत्वज्ञान) आवश्यक है। जैनदर्शन ने वस्तु को
१. श्रमण संस्कृति, सिद्धान्त और साधना में पं. विजयमुनि शास्त्री का लेख पृ. २५। २. आ. समन्तभद्र : युक्त्यनुशासन ६।
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