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जैनदर्शन का व्यावहारिक पक्ष
के अनुरूप अहिंसा का पालन नहीं कर पाते हैं तो यह हमारी कमजोरी है, किन्तु अपनी इस कमजोरी के कारण अहिंसा की परिभाषा को नहीं बदला जा सकता है।
इससे स्पष्ट है कि जैन-चिन्तकों ने अहिंसा का जो सूक्ष्म-विवेचन किया है, उसका पालन करने के लिये कटिबद्ध होना आवश्यक है, तभी हम अपने पर्यावरण की रक्षा कर सकेंगे और उससे होने वाली हानियों से बच सकेंगे।
आज सम्पूर्ण विश्व युद्ध की आशंका से ग्रस्त है और स्थिति इतनी भयंकर हो गई है कि सभी देश एक दूसरे से भयभीत हैं। फलस्वरूप सभी देशों ने अपनी-अपनी रक्षा के लिये शस्त्रों का संग्रह कर रखा है। देश के आर्थिक बजट का लगभग आधा अंश मात्र अस्त्र-शस्त्रों के जुटाने एवं उनकी साज-सम्हाल करने में ही खर्च किया जा रहा है। ऐसी विषम परिस्थिति में एक मात्र अहिंसा सिद्धान्त ही ऐसा है, जो विश्व के सभी प्राणियों को भयमुक्त जीवन प्रदान कर सकता है और विश्व के कोने-कोने से उठी नि:शस्त्रीकरण की आवाज को मूर्त रूप दे सकता है। बिना अहिंसक जीवन के सुख-शान्ति सम्भव नहीं है।
भगवान् महावीर ने स्पष्ट कहा है कि जिस प्रकार के आचार-व्यवहार से तुम्हें कष्ट की अनुभूति होती है वैसा आचार-व्यवहार तुम दूसरों के साथ भी मत करो।
जैन-चिन्तकों ने अहिंसा के पश्चात् जीवन में सत्य धर्म को स्वीकार किया है। यह सत्य धर्म भी हमारे जीवन में आवश्यक है, अन्यथा हम दूसरों का हृदय नहीं जीत सकते हैं।
इसी प्रकार जीवन में अचौर्य (चौर्य कर्म से विरत होना) का भी विशेष महत्त्व है। इससे जीवन में जहाँ पुरुषार्थ को बढ़ावा मिलता है, वहीं हम दूसरों के द्वारा अर्जित सुख-सम्पत्ति को उसकी अनुमति के बिना ग्रहण न करने से उसे दुःखी होने से बचा सकते हैं। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने धन को प्राण की संज्ञा दी है। क्योंकि धन-सम्पत्ति के चले जाने/नष्ट हो जाने से व्यक्ति को इतना
१. यही बात महाभारत में भी कही गई है
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।
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