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जैनदर्शन का व्यावहारिक पक्ष
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में दो संस्कृतियाँ स्पष्ट दिखलाई देती हैं- एक वैदिक और दूसरी श्रमण। वैदिक संस्कृति के अन्तर्गत साँख्य, योग, वेदान्त और मीमांसा आदि दर्शनों का विकास हुआ है और श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत जैन और बौद्धदर्शन का। जैनदर्शन अहिंसावादी दृष्टिकोण प्रधान है और बौद्धदर्शन करुणावादी दृष्टिकोण प्रधान। किन्तु इन दोनों दर्शनों के मूल में प्राणिमात्र के दुःख का दर्शन किया गया है और इन दोनों दर्शनों का साध्य जीव मात्र के कल्याण की भावना के रूप में प्रकट हुआ है।
__ वर्तमान काल की दृष्टि से जैनदर्शन एवं बौद्धदर्शन के चिन्तक क्रमश: भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध माने गये हैं, किन्तु पूर्वापर की दृष्टि से भगवान् महावीर पूर्ववर्ती हैं। इन्हें पालि-साहित्य में निगण्ठनातपुत्र के नाम से अभिहित किया गया है।
जैन-साधना का मार्ग अत्यन्त कठोर है। इसमें शिथिलाचार को कोई अवकाश नहीं है, जब कि बौद्ध-साधना का मार्ग सापेक्ष दृष्टि से सरल और व्यावहारिक है। क्योंकि मध्यम प्रतिपदा के रूप में विकसित बौद्ध-सिद्धान्त देशकालानुरूप हैं।
जैन साधकों की ऊँचाइयों को व्यावहारिक बनाये रखने में आज अनेक मुश्किलें सामने आ रही हैं, जिसका प्रमुख कारण जहाँ आज के मानव की बदली हुई मानसिक प्रवृत्ति है, वहीं देश-काल के अनुसार जैन-चिन्तकों द्वारा परिस्थितियों से समझौता न कर पाना भी है।
जैन-साधना पद्धति को दो रूपों में विकसित किया गया है। प्रथम है साधु-जीवन और द्वितीय है श्रावक-जीवन अथवा गृहस्थ जीवन। ऊपर जिस कठोर मार्ग की चर्चा की गई है वह साधु-जीवन को ध्यान में रखकर की गई है। इसका दूसरा पक्ष व्यावहारिक है। यह गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित है। यद्यपि जैन-साधना-पद्धति में साधु और श्रावक के द्वारा पालने योग्य मूल नियम पृथक्पृथक् नहीं है, किन्तु जिन मूलनियमों का पालन साधु पूर्ण रूप से करता है सूक्ष्म रूप से करता है, उन्हीं मूल नियमों का पालन श्रावक (गृहस्थ) एक देश (स्थूल रूप से) करता है। उसे ही जैन दार्शनिकों/चिन्तकों ने क्रमश: महाव्रत
और अणुव्रत के नाम से उल्लिखित किया है। जैन साधु अथवा श्रावक के लिये जिन मूलनियमों का पालन करना आवश्यक माना गया है, वे हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन पाँच मूलनियमों का पालन सच्चे
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