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जैनदर्शन में कर्म सिद्धांत
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५. योग - कर्मबन्ध का पंचम कारण योग हैं। यहाँ पर 'योग' का अर्थ है— मन, वचन और काय की क्रियायें। इन तीनों की क्रियाओं से कर्मबद्ध आत्मा में पुनः पुनः कर्मों का संचय होता रहता है। योग दो प्रकार का होता हैकषायसहित और कषायरहित। कषायसहित योग संसार का कारण होने के कारण ‘साम्परायिक' कहलाता है। 'सम्पराय' संसार का पर्यायवाची है, संसार का हेतु होने के कारण ही इसे 'साम्परायिक' नाम दिया गया है। कषायरहित योग 'ईर्यापथ' नाम के क्षणिक बन्ध का कारण होता है। 'ईर्यापथ बन्ध अगले क्षण ही बिना फल दिये नष्ट हो जाता है। इसकी स्थिति एक समय मात्र की होती है।
कर्मबन्ध के भेद-प्रभेद
जैनदर्शन में कर्म-बन्ध के भेदों का विवेचन अतिसूक्ष्म दृष्टि से किया गया है। कर्मों का बन्ध चार प्रकार का होता है- कर्मों के स्वभाव, कार्य तथा गुणों को बताने वाला बन्ध 'प्रकृति बन्ध', कर्मों के काल का निर्धारण करने वाला बन्ध 'स्थिति बन्ध', कर्मों की विपाक शक्ति को दर्शाने वाला बन्ध 'अनुभाग बन्ध' और कर्मों के पिण्डत्व को दर्शाने वाला बन्ध 'प्रदेश बन्ध' कहलाता है।
___ आचार्य उमास्वामी ने सूत्र में इन चारों भेदों का निर्देशन करते हुए कहा है- 'प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः' इन चारों में से प्रकृति और प्रदेश बन्ध, मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से होते हैं। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को जैनदर्शन में 'योग' कहा जाता है। नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है- “जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति""
संसार की वृद्धि करने वाले कषायसहित कर्म को ‘साम्परायिक' और संसार की वृद्धि न करने वाले कषायरहित कर्म को 'ईर्यापथ' कर्म कहा जाता है- "सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयो;" ईर्यापथ कर्म की तुलना गीता के 'निष्काम कर्म' से की जा सकती है, क्योंकि ईर्यापथ कर्म में भी निष्काम कर्म के समान ही इच्छा का अभाव होता है, जिसमें पुनर्जन्मरूप संसार फल को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होती ।
१. सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ ३२१;
२. वही। .३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृष्ठ ३६१ । ४. दि हार्ट ऑफ जैनिज्म, पृष्ठ १७६। ५. तत्त्वार्थसूत्र, ८/३;
६. वही, ६/१। ७. दव्वसंगहो, गाथा ३३;
८. तत्त्वार्थसूत्र, ६/४। ९. धवला, पु. १३, भाग४, पृष्ठ ५१।
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