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श्रमणविद्या- ३
इस प्रकार सुख-दुःख और जन्म मरण के कारण पर सांख्ययोगादि सभी दर्शनिकों ने गहरा अनुचिन्तन किया है । परन्तु इस विषय में प्रायः सभी एकमत है कि जन्म-मरण का कारण व्यक्ति के अपने परिणाम होते हैं, परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में भ्रमण होता है। गतियों की प्राप्ति होने पर शरीर, शरीर में इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण और विषयों को ग्रहण करने से राग-द्वेष उत्पन्न होता है। इस प्रकार अनादिकाल से जीव का यह संसार चक्र चला आ रहा है।
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सांख्य और मीमांसा - दर्शन में भी संस्कारों तथा उसके बीजभूत कर्म का उल्लेख करते हुये कहा गया है "जिस प्रकार बीज से अंकुर और अंकुर से बीज होता है, उसी प्रकार संस्कार से कर्म तथा कर्म से संस्कार उत्पन्न होता है । "
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कर्म के साधन मन, वचन तथा काय से तीन होते हैं, जिनके द्वारा प्राणी प्रतिक्षण कुछ न कुछ करता रहता है और उनसे अंत:करण में सहजरूप से संस्कारों का निर्माण होता रहता है। वे संस्कार शुभाशुभ पुण्य-पापरूप में स्वीकार किये गये हैं। जैनदर्शन में इनका विवेचन करते हुये कहा गया है“कायवाङ्मनः कर्मयोगः " " शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' अर्थात् मन-वचन-काय से प्राणी जो कुछ भी करता है, वह शुभ और अशुभरूप होता है। शुभ 'पुण्य' का कारण है और अशुभ 'पाप' का कारण है। इसी प्रकार मनुजी ने 'मनुस्मृति' में कहा है
" शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसम्भवम् ।"
अर्थात् मन-वचन-काय से किये जाने वाले कर्मों का फल शुभ या अशुभ होता है। योगदर्शन में भी इसी प्रकार पुण्य-पाप के हेतु शुभाशुभ कर्मों का विवेचन प्राप्त होता है ।
इस प्रकार पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ कर्मों का उल्लेख किसी न किसी रूप में सभी दर्शनों में प्राप्त होता है। न्याय-वैशेषिक इसे 'धर्म-अधर्म' कहते है, मीमांसा दर्शन में इसे 'अपूर्व' कहा गया है। योगदर्शन में इसे ही 'कर्म' के नाम से अभिहित किया गया है। बौद्ध धर्म में कुशल तथा अकुशल कर्मों' के द्वारा कर्म-विषयक सिद्धात का विवेचन किया गया है।
१. सांख्यकारिका, ६७
२. मनुस्मृति, अ. ११, श्लो. ३
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