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बंगाल के प्राचीन बौद्धविहारों में श्रमणों के नियम और शिक्षा व्यवस्था
श्री षष्ठीपद, चक्रवर्ती
प्राध्यापक, के.बौ.वि. संस्थान, चोगलमसर, लेह, लदाख
बौद्ध युग में शिक्षा भिन्न प्रकार की होती हुई भी भारत की एकात्मकता के साथ मिलती थी । बौद्ध विहार केन्द्रिक शिक्षा व्यवस्था के साथ ही बाह्यजगत् से शिक्षा ग्रहण के भी माध्यम बने हुए थे। प्राचीन बङ्गाल में शिक्षा के अनेक विषय जानने को मिलते है । उस समय की शिक्षा व्यवस्था का भार बौद्ध भिक्षुओं के ऊपर ही था । भिक्षु निर्बाध रूप से शिक्षा दे सके इसके लिए बङ्गाल के विभिन्न स्थानों में नालन्दा विहार की तरह विहारों का निर्माण किया गया था। इन सभी विहारों में असंख्य भिक्षु दूसरे प्रान्तों से आकर शिक्षा ग्रहण करते थे।
नागार्जुन कोण्डालिपि के द्वारा ज्ञात होता है कि अति प्राचीन काल में ही बङ्गाल में बौद्धविहारों का निर्माण हो चुका था । बङ्गाल थेरवादी परम्परा के भिक्षुओं का केन्द्र था। ये सम्भवतः तीसरी और चौथी ई.पू. के रहे होगे। इसके पहले भी इस देश में मौर्ययुग में उत्तर बङ्गाल प्राचीन पुण्डवर्धन नाम से विख्यात क्षेत्र में भी बौद्धविहार थे। यह महास्थान गड़लिपि के द्वारा जाना जाता है। बाढ़ और अग्नि आदि से खाद्यान्न की क्षति होने पर विहारों में एकत्रित खाद्य सामग्री आम आदमी को दी जाती थी । पूर्वबङ्गाल में जो आज बङ्गलादेश के रूप में जाना जाता है, वहाँ पर अनेक विहार थे। इसका ज्ञान हमे गुनाइघट लिपि से मालुम होता है। वन्यगुप्त ने ५०८ गुप्ताब्द में आचार्य शान्तिदेव के द्वारा निर्मित महायान सम्प्रदाय बौद्धविहार के लिए भूमिदान किया था।
चीनदेश से जो सब भ्रमणकारी भारत वर्ष में आये थे उन लोगो के यात्रा वृत्तान्तों से जानकारी मिलती है कि कार्जङ्गल, समतट, पण्डुवर्धन और ताम्रलिप्ति (वर्तमान में तमलुक) में बहुत सारे बौद्धविहार और विद्यालय थे।
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