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श्रमणविद्या-३
शब्दवृत्तियाँ
काव्यशास्त्र में शब्दव्यापार के तीन भेद माने गये हैं- अभिधा, लक्षणा . तथा व्यंजना। शब्द के उच्चारण के साथ ही साक्षात् जिस अर्थ का बोध होता है वह उस शब्द का मुख्य अर्थ अथवा वाच्य अर्थ है और वही आनन्दवर्धन के अनुसार वाक्यार्थ है। जिस कारण इस वाक्यार्थ का बोध होता है, वह है अभिधा- शब्द की मुख्यवृत्ति। मम्मट के अनुसार संकेतित अर्थ का प्रतिपादन करने वाली शब्दवृत्ति अभिधा हैं और उस अर्थ का बोधक शब्द वाचक रत्नाकरकार यहाँ भी ध्वनिकार के ही आशय का अनुसरण करते हैं। आर्थी उत्प्रेक्षा के विवेचन के प्रसङ्ग में वाक्यार्थ प्रतीति के बीजभूत जिस अर्थव्यापार की चर्चा उन्होनें की है, वह अभिधा ही हैं। यथा
'वाक्यार्थप्रतीतिसमय एव पदार्थसमन्वयपर्यालोचनया आवर्तमानस्य हेतोरतात्विकावगतेरार्थः सम्भावनात्मक इवार्थ इत्यार्थी।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि इस मुख्यार्थ से काम नहीं चलता, तब उसी से सम्बन्धित एक अन्य अर्थ से काम चलाना पडता हैं। यह ध्वनिकार के अनुसार शब्द की गुणवृत्ति है और इसी को लक्षणा भी कहा गया है। ऐसे अर्थ को लक्ष्यार्थ कहा गया है, और वह शब्द जिससे इस अर्थ का बोध होता है, लाक्षणिक है। जिस वृत्ति के कारण लक्ष्य अर्थ का बोध होता हैं वह लक्षणा कही गयी हैं। यह लक्षणा दो प्रकार की होती हैं—प्रयोजनरहिता रूढा और प्रयोजनसहिता कार्या। रूढा लक्षणा में प्रयोजनरूप व्यंग्यार्थ का अभाव होने से कोई चारुता नहीं होती, अतः सहृदयों के हृदय को वह आह्लादित नहीं करती। वह रस की परिपोषक नहीं होती, अत: अलंकार नहीं है। कार्या उससे भिन्न होती है, वह व्यंग्य का विषय होती हैं, अत: काव्यजीवित होने से कविगण द्वारा समादृत होती हैं। इस विषय में ध्वनिकार आदि को कोई विप्रतिपत्ति नहीं हैं। इसी प्रसंग में शोभाकर सादृश्य एवं सम्बन्धान्तर सम्बन्ध से भी लक्षणा स्वीकार करते हैं। पर्यायोक्त के प्रकरण में उन्होनें उपादान लक्षणा को मान्य ठहराया हैं। यथा
१. आनन्दवर्धनः डॉ. रेवा प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ २४३-५५। २. काव्यप्रकाश-सूत्र १ । ३. अ.र. पृष्ठ५०।
४. अ.र.पृष्ठ.३२
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