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बोधिसत्त्व-अवधारणा के उदय में बौद्धेत्तर प्रवृत्तियों का योगदान १०१
महायान में श्रौत परम्परा एवं भागवत सम्प्रदाय में भक्ति तत्व के ग्रहण एवं आत्मसात् करण के रूप में इन प्रभावों के चिन्हों के साथ-साथ भागवत धर्म की प्रगति के समानान्तर रूप से विकसित होनेवाली शैव साधना के प्रभाव पर कुछ दृष्टिपात करना भी आवश्यक है। शैव-साधना भारतीय भूमि की अत्यन्त प्राचीनतम साधनाओं में से एक है। इसकी विद्यमानता मोहन-जोदड़ो के समय में भी स्वीकृत है। श्वेताश्वतर उपनिषद में शिव को भगवान कहा गया है तब उनके प्रति भक्तिमय उद्गार व्यक्त किए गए हैं। यद्यपि यह उपनिषद बद्ध से परवर्तीकाल का है फिर भी बोधिसत्त्व की सुस्पष्ट अवधारणा के उदयं से निश्चित रूप से पूर्वकालीन है ही।
__मिलिन्द प्रश्न में वासुदेव उपासकों के साथ-साथ शैवों का भी समुल्लेख किया गया है । मेगास्थनीज ने भी यह लिखा है कि भारतीय लोग दायोनिसिस के पूजक थे। दायोनिसिस का समीकरण शिव के साथ विद्वानों द्वारा प्रायः स्वीकृत है। भण्डारकर ने भी कम से कम द्वितीय शतक ई. पू. में शैवधर्म के अस्तित्व को स्वीकार किया है।
इन सभी प्रचुर ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह सूचित होता है कि ईसवीं शतक से पूर्व ही शिव के आराधकों का एक सुदृढ समूह भारतीय धार्मिक जगत में विद्यमान था। इसकी अविरलधारा अजस्र रूप से बराबर प्रवाहित होती रही एवं जिस युग में महायान धर्म का उदय हो रहा था उस समय भारतीय समाज में शैव या पाशुपत साधना भी विद्यमान थी। पतंजलि के महाभाष्य तथा मिलिन्द प्रश्न आदि से इसकी स्थिति द्वितीय श्ताब्दी ई. पू. में सिद्ध हो जाती है जैसा कि कतिपय आधुनिक विद्वानों की मान्यता है। यद्यपि इसका सीधा प्रभाव महायान के बोधिसत्त्व जैसे विशिष्ट सिद्धान्तों पर सस्पष्ट रूप से परिलक्षित नहीं होता फिर भी आराध्य देव या भगवान के रूप में शिव की बहुत प्राचीन काल से ही जो स्थापना हो चुकी थी उनसे बोधिसत्त्व-अवधारणा के कुछ पक्ष सर्वथा
. १. सर्वव्यापसि भगवांस्तस्मातसर्वगतः शिवः- श्वे. ३.२ देवम्
आत्मबुद्धिमकाशशरणमहं प्रपद्ये-श. वे ६. १८ इत्यादि २. मि.प. पृ. १९१। सिवा वासुदेव थानिका आदि। ३. जो. एम. मेविकंडल इण्डिया पृ. २०० ४. आर. जी भण्डारकर सेक्ट्स पृ. ११६,११७
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