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से पाठ का सम्यक् रूप से मिलान करते हए इसका मूलपाठ निर्धारित किया है, जिससे यह ज्ञात होता है कि जर्नल आफ पालि टेक्स्ट सोसायटी के रोमन लिपि में इसका जो संस्करण हुआ था, वह समीचीन नहीं था। इसके साथ ही प्रो. तिवारी ने महत्त्वपूर्ण थेरवाद की दार्शनिक पारिभाषिक शब्दों पर अन्य पूर्ववर्ती ग्रन्थों से टिप्पणियाँ भी प्रस्तुत की हैं। इस ग्रन्थ के आलोडन से यह ज्ञात होता है कि यह 'अभिधम्मत्थसंगहो' के बाद का और इस पर लिखी गई 'विभाविनी' टीका के पूर्व की रचना है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु सम्पूर्ण स्थविरवादी अभिधर्म की है। इसके इस देवनागरी संस्करण से अध्येताओं तथा शोधार्थियों को अपने शोध-कार्य में अत्यन्त सहायता प्राप्त होगी।
___ पालि गद्य में उपनिबद्ध 'बुद्धघोसुप्पत्ति' एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक रचना है, जिसमें पालि-साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान करने वाले आचार्य बुद्धघोष का जीवनवृत्त वर्णित है। प्रो.जेम्स ने एक हस्तलिखित ताड़पत्र पर इस ग्रन्थ को प्राप्त किया था, जिसका इन्होंने १८९२ ई. में अंग्रेजी अनुवाद के साथ रोमन लिपि में सम्पादन किया था। जो १८९२ ई. के जर्नल आफ पालि टेक्स्ट सोसायटी में लन्दन से प्रकाशित हुआ था। उसी को आधार मानकर डॉ. वीरेन्द्र पाण्डेय ने परिश्रम एवं सावधानीपूर्वक इसका देवनागरीकरण किया है। पाठभेद भी पादटिप्पणी में उद्धृत किया गया है। साथ ही इन्होंने हिन्दी के माध्यम से इसका सङ्क्षिप्त परिचय भी प्रस्तुत किया है। यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हुए भी देवनागरी लिपि में अनुपलब्ध एवं अप्राप्य है। इसके प्रकाशन से आचार्य बुद्धघोष के जीवनवृत्त को जानने में बौद्धविद्या के अध्येताओं एवं गवेषकों को प्रभूत सहायता मिलेगी।
_ 'सद्दबिन्दु' बीस कारिकाओं में रचित एक व्याकरण ग्रन्थ है। इसे 'पेगन' के राजा ‘क्यचवा' ने १२५० ई. के आस-पास राजमहल की स्त्रियों के प्रयोग हेतु बनाया था। पुन: सद्दकीर्ति महाफुस्सदेव ने इस पर ग्रन्थसार नामक सद्दबिन्दुविनिच्छयो नाम से एक अनुटीका की रचना की थी, यह टीका एवं अनुटीकाएँ 'कच्चायन व्याकरण' पर आधारित हैं। प्रस्तुत संस्करण का आधार ग्रन्थ जर्नल आफ पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन है। इस दुर्लभ लघु-ग्रन्थ का सम्पादन डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद ने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक किया है। इससे बौद्धविद्या के सामान्य अध्येताओं को पालि-व्याकरणशास्त्र के अध्ययन में सहायता मिलेगी।
‘क्रियासङ्ग्रह' क्रियातन्त्र का प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसमें एक अंश देवतायोग का ही यहाँ प्रकाशन किया जा रहा है। इस तरह यह अपूर्ण रूप
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