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________________ श्रमण परम्परा में संवर २१ विराग तथा निरोध के लिए है। आगे कहा है कि उन भगवान् (बुद्ध) ने संवर के लिए, प्रहाण के लिए यथार्थं ब्रह्मचर्यं वास की देशना उन लोगों को की है जो निर्वाण में डुबकी लगाना चाहते हैं । यह वह मार्ग है जिसका महान् महर्षियों ने अनुकरण किया है, जो बुद्ध की देशनानुसार इस मार्ग पर चलते हैं, शास्ता के अनुशासन में रहने वाले लोग दुःख का अन्त कर डालते हैं ।" * ८९ धम्मपद में कहा गया है कि नेत्र का संवर श्रेयस्कर है, श्रोत का संवर श्रेयस्कर है, घ्राण, जिह्वा, शरीर, वाणी, मन तथा सर्वेन्द्रियों का संवर श्रेयस्कर है । सर्वत्र संयम किया भिक्षु सर्व दुःखों से मुक्त होता है ।" आगे कहा है कि प्रज्ञावान् भिक्षु का उपक्रम इस प्रकार का होता है - इन्द्रियनिग्रह, सन्तोष, प्रातिमोक्ष के संवर से संवृत होना तथा कल्याणकारी पवित्र आजीविका वाले अतन्द्रित मित्रों की संगति, एवं आतिथ्यशील तथा सदाचारी बने रहना । हे भिक्षो ! इसी तरह प्रमोद से ओत-प्रोत होकर दुःख का अन्त पाओगे | १० एक अन्य प्रसंग में कहा गया है कि पर निन्दा न करना, परघात न करना प्रातिमोक्ष के संवर से संवृत रहना, परिमित भोजन करना, एकान्तसेवन, और अधिचित्त - चित्त का योग में लगाना - का अभ्यास करना, यही बौद्धों का शासन है ।" शौरसेनी, अर्धमागधी प्राकृत, पालि तथा संस्कृत साहित्य के आधार पर किये गये संवर शब्द के उपर्युक्त विश्लेषण से निम्नांकित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं संवर शब्द सामान्य रूप से निग्रह या रक्षा करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसकी व्याख्या करते समय जैन और बौद्ध दोंनों परम्पराओं ने आध्यात्मिक तथा दार्शनिक दोनों दृष्टियों से विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है । आत्मवादी होने ८८. नयिदं भिक्खवे, ब्रह्मचरियं वुस्सति जनकुहनत्थं, न जनलपनत्थं, न लाभ सक्कार सिलोका निसंसत्थं न इति वादप्पमोक्खानि संसत्थं न ' इति मं जनो जानातू' ति । अथ खो इदं, भिक्खवे, ब्रह्मचरियं वुस्सति संवत्थं पहानत्थं विरागत्थं निरोधत्थं ति । - अंगुत्तरनिकाय २२४/३, इतिवु० २८ । ८९. धम्मपद, १२ १, २ । ९०. वही । ९१. अनुपत्रादो अनुपघातो पातिमोक्खे च संवरो । मत्तञ्ञता च भत्तस्मि पन्तञ्च सयनासनं । अधिचित्ते च आयोगो एवं बुद्धान' सासनं । - धम्मपद १४।३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only संकाय पत्रिका - २ www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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