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अवचूरिजुदो दव्वसंगहो
मूल्यांकन इस विराट सन्दर्भ में किया जाना चाहिए। तभी नेमिचन्द्र के अवदान का महत्त्व आँका जा सकेगा । ऐतिहासिक तथ्यों का आकलन और निर्णय कल्पना तथा अनुमान के द्वारा नहीं हो सकता । कई बार टीकाकारों या बाद के सन्दर्भों से जो भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है, उसे बहुत सावधानीपूर्वक जाँचा देखा जाना चाहिए । ग्रन्थकार नेमिचन्द्र
द्रव्यसंग्रह की अन्तिम गाथा में ग्रन्थकार का नाम नेमिचन्द्र मुनि आया है । गाथा इस प्रकार है
"दवस संगहमिणं मुणिणाहा दोससंसयचुदा सुदपुण्णा । सोधयंतु तणुसुत्तधरेण णेमिचंदमुणिणा भणियं जं ॥"
तिलोयसारो या त्रिलोकसार के अन्त में निम्नलिखित गाथा उपलब्ध है
"इदि णेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणभयणंदिसिस्सेण । रइओ तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाईरिया ॥"
द्रव्यसंग्रह और त्रिलोकसार की उक्त गाथाओं से स्पष्ट है कि दोनों ग्रन्थ एक ही नेमिचन्द्र द्वारा निबद्ध हैं । दोनों में वे अपनी विनम्रता व्यक्त करते हुए स्वयं को अल्पश्रुतधर कहते हैं । द्रव्यसंग्रह में वे पूर्णश्रुतधारी मुनिनाथों से द्रव्यसंग्रह को संशोधित कर लेने की प्रार्थना करते हैं और त्रिलोकसार में बहुश्रुत आचार्यों से क्षमायाचना करते हैं । त्रिलोकसार में नेमिचन्द्र ने अपने को अभयनन्दि का शिष्य कहा है । उक्त ग्रन्थों की तरह लब्धिसार में भी 'अप्पसुदेण णेमिचंदेण' (गाथा ६४८) पद आया है ।
गोम्मटसार नाम से प्रसिद्ध 'गोम्मटसंगहसुत्तं' में अनेक गाथाओं में ग्रन्थकर्ता नेमिचन्द्र और उनके गुरुजन आदि का उल्लेख है । इसी ग्रन्थ में वह बहुचर्चित गाथा है, जिसके आधार पर नेमिचन्द्र को सिद्धान्तचक्रवर्ती अभिहित किया जाता है । गाथा इस प्रकार है
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"जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण । तह मइ चक्केण मया छक्खंड साहियं सम्मं ॥"
--गोम्मटसारकर्मकाण्ड गाथा ३९७ द्रव्यसंग्रह या दव्वसंगहो, त्रिलोकसार या तिलोयसारो तथा गोम्मटसार या गोम्मटसंगहसुत्तं एक ही नेमिचन्द्र द्वारा निबद्ध माने जाते रहे हैं; किन्तु ब्रह्मदेवकृत संस्कृत टीका के प्रकाशन के बाद टीका के सन्दर्भों के आधार पर द्रव्यसंग्रहकार को
संकाय पत्रिका - २
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