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प्रस्तावना 'दवसंगहो' प्राकृत गाथाओं में निबद्ध एक लघु कृति है। इसमें मात्र ५८ गाथाएँ हैं । द्रव्यसंग्रह नाम से यह बहु प्रचलित है । हिन्दी तथा अंग्रेजी अनुवाद और ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका के साथ इसके अलग-अलग संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत संस्करण में अब तक अप्रकाशित अज्ञात कर्तृक अवचूरि नामक संस्कृत टीका को प्रथम बार प्रकाशित किया जा रहा है। सम्पादन का आधार
अवचूरि की एक मात्र प्राचीन प्रति जैन सिद्धान्त भवन, आरा में उपलब्ध हुई है। कागज पर देवनागरी लिपि में लिखी इस प्रति में १०" x ४३' इंच के २४ पत्र हैं। प्रथम पत्र में नव तथा शेष में १० पंक्तियाँ हैं। काली तथा बीच बीच में लाल स्याही का प्रयोग किया गया है। अन्त में प्रतिलिपिकार ने निम्नलिखित सूचना दी है
"इति द्रव्यसंग्रहटोकावचूरिसम्पूर्णः । संवत् १७२१ वर्षे चैत्रमासे शुक्लपक्षे पंचमीदिवसे पुस्तिका लिखायितं सा० कल्याणदासेन ।"
संभवतया किसी प्राचीन कन्नड लिपि में लिखित ताडपत्रीय प्रति से यह देवनागरी लिपि में लिखी गयी है। प्रति अशुद्धि बहुल है। विषय परिचय
दव्वसंगहो की गाथाओं में जैन तत्त्वज्ञान के कतिपय प्राचीन सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। प्रथम २७ गाथाओं में 'षड् द्रव्य' तथा 'पञ्चास्तिकाय' विवेचन है । गाथा २८ से ३८ तक 'सप्त तत्त्व' और 'नव पदार्थ' प्रतिपादित हैं। इसके बाद २० गाथाओं में 'मोक्षमार्ग' का प्रतिपादन किया गया है। पञ्चास्तिकाय
जैन दर्शन में 'पञ्चास्तिकाय सिद्धान्त' के अन्तर्गत जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय के स्वरूप का प्रतिपादन किया जाता है। यह सिद्धान्त पञ्च भूतवाद तथा पञ्च स्कन्धवाद से सर्वथा भिन्न है । भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी अन्य दर्शन में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जैसे द्रव्यों या तत्त्वों का प्रतिपादन नहीं मिलता। आकाशास्तिकाय की तुलना आकाश द्रव्य से, पुद्गलास्तिकाय की तुलना सांख्यों के प्रकृति या प्रधान
संकाय-पत्रिका-२
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