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श्रमण परम्परा मैं संवर
पूर्वक अविरतिरूप परिणामों का निरोध होता है और कषायरहित परिणामों से क्रोधादिरूप आस्रवों के द्वार बन्द हो जाते हैं । २९
धवलाकार ने कहा है कि मिथ्यात्व अविरति के समान, कषाय और योगमन, वचन, काय की प्रवृत्ति भी कर्मों के आस्रव हैं । अर्थात् इनसे विपरीत, सम्यक्त्व, विरति, अकषाय और योगनिरोध ये संवर हैं । 30 कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है कि सम्यक्त्व, देशव्रत, महाव्रत, कषायों का जीतना तथा योगों का अभाव ये सब संवर के नाम हैं। एक अन्य स्थल पर लिखा है कि जो मुनि विषयों से विरक्त होकर, मनको हरनेवाले इन्द्रियविषयों से अपने को सदा दूर रखता है, उसी के निश्चय से संवर होता है । "
तत्वार्थ सूत्रकार ने लिखा है - वह संवर गुप्ति, समिति, धर्मं, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र से होता है ।
सर्वार्थसिद्धिकार ने संवर के इन कारणों को विश्लेषित करते हुए लिखा है कि काय आदि योगों का निरोध होने पर योग निमित्तक कर्म का आस्रव नहीं होता है, इसलिए गुप्ति से संवर की सिद्धि जान लेना चाहिए । समितियों रूप प्रवृत्ति करने वाले के असंयम रूप परिणामों के निमित्त से होनेवाले कर्मों के आस्रव का संवर होता है। जीवन में उतारे गये स्वगुण तथा प्रतिपक्षभूत दोषों के सद्भाव में यह लाभ और यह हानि है, इस तरह की भावना से प्राप्त उत्तम क्षमादिक धर्म संवर के कारण हैं । अनित्यादि अनुप्रेक्षाओं का सान्निध्य मिलने पर उत्तमक्षमादि के धारण करने से महान संवर होता है । जो संकल्प के विना उपस्थित हुए परिषहों को सहन करता है, और जिसका चित्त संक्लेश रहित है, उसके रागादि परिणामों के आस्रव का निरोध होने से महान् संवर होता है | 33
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पंचमन्वयमणसा अविरमणणि रोहणं हवे नियमा । कोहादि आसवाणं दाराणि कसायरहियपल्लगेहिं ॥
- बारस अणुवेक्खा, गा० ६२ ।
धवलाटीका ७।२ ।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० ९५, १०१ । गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रः ।
सर्वार्थ सिद्धि, ९।४ ।
——–तत्त्वार्थसूत्र ९।२ ।
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संकाय पत्रिका - २
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