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संधि छिद्दसहस्से जलजाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छत्ताइअभावे तह जीवे संवरो होइ
- समणसुत्तं, गाथा ६०६/
- जैसे जलयान के हजारों छेद बन्द कर देने पर उसमें जल प्रवेश नहीं करता, वैसे ही मिथ्यात्व आदि के दूर हो जाने पर जीव में संवर होता है ।
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कायेन संवरो साधु साधु वाचाय संवरो । मनसा संवरो साधु साधु सब्बथ संवरो । सम्बत् संवुतो भिक्खु सब्बदुक्खा पमुच्चति ॥ - धम्मपद, गाथा ३६१ /
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—शरीर का संवर भला है, वचन का संवर भला है, मन का संवर भला है और सर्वत्र (इन्द्रियों) का संवर भला है । सर्वत्र संवर-युक्त भिक्षु समस्त दुखों से मुक्त हो जाता है ।
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