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________________ ११४ कसायपाहुडसुत्तं निर्धारित होता है। इसी कारण 'कसायपाहुड' नाम से कषायों का स्वतन्त्र रूप से विवेचन करने को परम्परा चली। भविष्य के अनुसन्धानों में 'कसायपाहुड' की प्राचीन धारा तथा उसके विकासक्रम का व्योरेबार अध्ययन होना चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि सभी परम्पराओं के उपलब्ध साहित्य का समालोचक दष्टि से आलोडन किया जाये । आशा है 'कसायपाहुडसुत्तं' का प्रस्तुत संस्करण ऐसे अध्ययन में उपयोगी सिद्ध होगा। आभार 'कसायपाहुडसुत्तं' का प्रस्तुत संस्करण तैयार करने में डॉ. सुनीता जैन का प्रमुख सहभाग है। मूल ग्रन्थ की प्रेस कापी तथा पूरी गाथाओं के प्रत्येक शब्द की सूची तैयार करने का कठिन कार्य उन्होंने अनवरत श्रम करके सम्पन्न किया। शब्द सूची को अनुक्रम से व्यवस्थित करने का कार्य मेरे प्रिय विद्यार्थी डाँ० ऋषभचन्द्र जैन तथा डॉ. कमलेश जैन ने मिलकर सम्पन्न किया है। हिन्दी में ग्रन्थ का भावानुवाद डॉ० कमलेश तथा डॉ. सुनीता जैन ने लिखा है। प्राकृत आगम परम्परा के अध्ययन से सम्बद्ध रहने के कारण सभी अपना कार्य आत्म विश्वास और निष्ठा के साथ सम्पन्न कर सके । उनका यह सहभाग उनके स्वतन्त्र अध्ययन का पाथेय बने, ऐसी कामना करता हूँ। कसायपाहुड की प्राचीन परम्परा के सम्बन्ध में मान्य भाई प्रो. मधुसूदन ढाकी से कई बार विस्तार से चर्चा हुई है। प्रसंगतः अन्य अनेक विषयों पर भी विचार हुआ है। उस सबका समावेश इस प्रस्तावना में सम्भव नहीं था। उनकी तटस्थ और समालोचक दृष्टि तथा प्राचीन जैन श्रमण धारा के गम्भीर अध्ययन से मुझे अपने अध्ययन-अनुशीलन के लिए बहुत बल मिला। इसके लिए उनका हृदय से ऋणी हूँ। इस उपक्रम में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अन्य जिसका भी सहयोग प्राप्त हुआ, उन सबका कृतज्ञ हूँ। __ कसायपाहुडसुत्तं का प्रकाशन संकाय पत्रिका के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से प्राकृत जैनविद्या ग्रन्थमाला के अन्तर्गत हो रहा है। इससे इस ग्रन्थ के अध्ययन की सम्भावनाएँ और अधिक व्यापक होंगी। ज्ञान का क्षेत्र विशाल है। बहुत सावधानी रखने पर भी त्रुटियाँ सम्भव हैं। सुधीजन उनका परिमार्जन कर इस ग्रन्थ का उपयोग करेंगे, यह विश्वास है। इस ग्रन्थमाला में 'परमागमसारो' तथा 'तच्चवियारो' के बाद यह तीसरा प्राकृत ग्रन्थ है। प्राकृत की ज्ञान सम्पदा में इससे नयी श्रीवृद्धि होगी। गोकुलचन्द्र जैन अध्यक्ष, प्राकृत एवं जैनागम विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय संकाय-पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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